SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनशासन के ज्योतिर्धर वर्तमान समय के आचार्य भगवतन्तों की परंपरा में जैनागम के प्रकांड विद्वानों में से श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी महाराज अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनके स्वयं का जीवन एक चलती फिरती विश्वविद्यालय जैसा था। उनके कार्य से, उनके व्यवहार से और उनकी वाणी से लोगों को एक प्रकार की हृदयग्राही प्रेरणा मिलती थी। पूज्य सागरजी महाराज अपूर्व बौद्धिक प्रतिमा से सम्पन्न एक महान आचार्य प्रवर थे। उन्होंने आगमिक ज्ञान की परंपरा का पुनरोद्धार करके श्रुत परंपरा की उत्कृष्ट भक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक ऐसे समय में जब की आगम की पाण्डु लिपि बद्ध हस्तप्रत मिलना अतिदुष्कर कार्य था। उसे प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती थी। जिनके हाथों में ज्ञान भण्डारों की व्यवस्था होती थी वे लोग बड़े मानसिक संकीर्णता से ग्रस्त थे। आगम के संशोधन कार्य में ऐसे कई विघ्न आते रहते थे फिर भी उन्होंने अपना प्रयास नहीं छोड़ा और इस कार्य को अपने जीवन के अन्तिम समय तक चालु रखा। - जगत को उन्होंने ज्ञान का प्रकाश दिया। तत्त्वज्ञान से भरपुर उनके आगमिक प्रवचन अपने आपमें एक प्रकाश पुंज थे। प्रवचन श्रवण करनेवाले या प्रवचनों का संकलन जो सिद्धचक्र के माध्यम से प्रकाशन होता रहा उसके पठन मनन करनेवाले सहज के अन्दर तात्त्विक विषयों के जानकार और जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्तों के परिचित हो जाते थे। सिद्धचक्र मासिक पत्रिका जैन समाज में सम्यग्ज्ञान की प्रचार करनेवाली थी। लोगों को सागरजी म. के तात्त्विक प्रवचनों का खूब आकर्षण रहता था। उनेक प्रवचन में ही ऐसी शक्ति थी कि श्रवण करनेवाला स्वयं एक पंड़ित हो जाता था। आपने आगमिक वाचनाओं का प्रवाह जो वर्षों से मंद पड़ा था, उसे अपनी विशिष्ट बौद्धिक प्रतिभा से उजागर किया था। लाखों श्लोक प्रमाण आगम साहित्य को वाचनाओं के माध्यम से भव्य जीवों को सुलभ कराया था। आगमोदय समिति, श्री देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड और ऋषभदेव केशरीमल पेढी रतलाम, जैसी आगम प्रकाशन समितियों का गठन करके जैनागमों का संशोधन पूर्वक सफल प्रकाशन करवाया है। वर्तमान समय में आपके द्वारा-संशोधित संपादित आगम साहित्य समाज और विद्वानों के लिए आशीर्वाद रुप सिद्ध हुआ है। एक ओर उन्होंने आगम साहित्य का प्रकाशन करके तो दूसरी ओर आगम मन्दिरों की प्रेरणा करके अपनी दीर्घ दर्शिता का परिचय दिया है। सुरत और पालिताणा के भव्य आगम मन्दिर उनके अमर कृतित्व है। जैन शासन पर जब-जब किसी भी प्रकार का प्रहार चाहे राज्य की तरफ से या सुधारकों की तरफ से या अन्य किसी पक्ष से पिड़ीत होकर किसीने भी किया हो उसका प्रमाणोपेत सुन्दर प्रतिकार साधुता के अनुरुप पूज्य सागरजी महाराजने किया साधु संस्था उपर कोई आय-प्रत्यारोप
SR No.520954
Book TitleSiddhachakra Varsh 04 - Pakshik From 1935 to 1936
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshoksagarsuri
PublisherSiddhachakra Masik Punarmudran Samiti
Publication Year2001
Total Pages696
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Siddhachakra, & India
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy