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सागरमल जैन
SAMBODHI
(१) विमलसूरि ने लिखा है कि 'जिन' के मुख से निर्गत अर्थरूप वचनों को गणधरों ने धारण करके
उन्हें ग्रन्थरूप दिया-इस तथ्य को मुनि कल्याणविजयजी ने श्वेताम्बर परम्परा सम्मत बताया है ।
क्योंकि श्वे. परम्परा की नियुक्ति में इसका उल्लेख मिलता है ।२६ . .(२) पउमचरियं (२/२६) में महावीर के द्वारा अँगूठे से मेरूपर्वत को कम्पित करने की घटना का
भी उल्लेख हुआ है, यह अवधारणा भी श्वेताम्बर परम्परा में बहुत प्रचलित है । (३) पउमचरियं (२/३६-३७) में यह भी उल्लेख है कि महावीर केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भव्य
जीवों को उपदेश देते हुए विपुलाचल पर्वत पर आये, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर ने ६६ दिनों तक मौन रखकर विपुलाचल पर्वत पर अपना प्रथम उपदेश दिया । डॉ. हीरालाल
जैन एवं डॉ. उपाध्ये ने भी इस कथन को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में माना है ।२७ (४) पउमचरियं (२/३३) में महावीर का एक अतिशय यह माना गया है कि वे देवों के द्वारा निर्मित
कमलों पर पैर रखते हुए यात्रा करते थे। यद्यपि कुछ विद्वानों ने इसे श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में प्रमाण माना है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह कोई महत्त्वपूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता । यापनीय आचार्य हरिषेण एवं स्वयम्भू आदि ने भी इस अतिशय का उल्लेख किया है। पउमचरियं (२।८२) में तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति के बन्ध के बीस कारण माने हैं। यह मान्यता आवश्यकनियुक्ति और ज्ञाताधर्मकथा के समान ही है। दिगम्बर एवं यापनीय दोनों ही परम्पराओं में इसके १६ ही कारण माने जाते रहे है । अतः इस उल्लेख को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में
एक साक्ष्य कहा जा सकता है। (६)
पउमचरियं में मरूदेवी और पद्मावती - इन तीर्थंकर माताओं के द्वारा १४ स्वप्न देखने का उल्लेख है ।२८ यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा १६ स्वप्न मानती है। इसी प्रकार इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बन्ध में प्रबल साक्ष्य माना जा सकता है। पं. नाथूरामजी प्रेमी ने यहाँ स्वप्नों की संख्या १५ बतायी है ।२९ भवन और विमान को उन्होंने दो अलग-अलग स्वप्न माना है । किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में ऐसे उल्लेख मिलते है कि जो तीर्थंकर नरक से आते है, उनकी माताएँ भवन और जो तीर्थंकर देवलोक से आते ही उनकी माताएँ विमान देखती है। यह एक वैकल्पिक व्यवस्था है अतः संख्या चौदह ही होगी । अतः भवन और विमान वैकल्पिक स्वप्न माने गये हैं, इसप्रकार माता द्वारा देखे जाने वाले स्वप्न की संख्या तो १४ ही रहती है (आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, पृ.१०८) । स्मरण रहे कि यापनीय रविषेण ने पउमचरियं के ध्वंजे के स्थान पर मीन-युगल को माना है । ज्ञातव्य है कि प्राकृत 'झय' के संस्कृत रूप 'ध्वज' तथा झष (मीन-युगल) दोनों सम्भव है । साथ ही सागर के बाद उन्होंने सिंहासन का उल्लेख किया है और विमान तथा भवन को अलग-अलग स्वप्न माना हैं यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्वप्न सम्बन्धी पउमचरियं की यह गाथा श्वेताम्बर मान्य 'नायधम्मकहा' से बिल्कुल समान है । अतः यह अवधारणा भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बन्ध में प्रबल साक्ष्य है।
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