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सागरमल जैन
SAMBODHI
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पउमचरियं में पाँच स्थावरकायों के उल्लेख के आधार पर भी उसे दिगम्बर परम्परा के निकट बताने का प्रयास किया गया है, किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि स्थावरों की संख्या तीन मानी गई है अथवा पाँच, इस आधार पर ग्रन्थ के श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्परा का होने का निर्णय करना संभव नहीं है। क्योंकि दिगम्बर परम्परा में जहाँ कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय (१११) में तीन स्थावरों की चर्चा की हैं, वहीं अन्य आचार्यों ने पाँच की चर्चा की है। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी, तीन स्थावरों की तथा पाँच स्थावरों की दोनों मान्यताएँ उपलब्ध होती है। अतः ये तथ्य विमलसूरि और उनके ग्रन्थ की परम्परा के निर्णय का आधार नहीं बन सकते । इस तथ्य की विशेष चर्चा हमने तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के प्रसंग में की है, साथ ही एक स्वतन्त्र लेख भी श्रमण अप्रैल-जून ९३ में प्रकाशित किया है, पाठक इसे वहां देखें । कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पउमचरियं में १४ कुलकरों की अवधारणा पायी जाती हैं । दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में भी १४ कुलकरों की अवधारणा का समर्थन देखा जाता है। अतः यह ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा का होना चाहिए । किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में अन्तिम कुलकर के रूप में ऋषभ का उल्लेख है। ऋषभ के पूर्व नाभिराय तक १४ कुलकरों की अवधारणा तो दोनों परम्पराओं में समान है। अतः यह अन्तर ग्रन्थ के सम्प्रदाय के निर्धारण में महत्त्वूपर्ण नहीं माना जा सकता है। पुनः जो कुलकरों के नाम पउमचरियं में दिये गये है उनका जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और तिलोयपण्णत्ति दोनों से ही कुछ अन्तर है। पउमचरियं के १४वें अधिकार की गाथा ११५ में समाधिकरण को चार शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है४. किन्त श्वेताम्बर आगम उपासकदशा में समाधिकरण का उल्लेख शिक्षाव्रतों के रूप में नहीं हुआ है। जबकि दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्द आदि कुछ आचार्य समाधिमरण को १२ वें शिक्षाव्रत के रूप में अंगीकृत करते हैं ।५ अतः पउमचरियं दिगम्बर परम्परा में सम्बन्ध होना चाहिए । इस सन्दर्भ में मेरी मान्यता यह है कि गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का अनुसरण करने वाले दिगम्बर आचार्य भी समाधिमरण को शिक्षाव्रतों में परिग्रहित नहीं करते हैं । जबकि कुन्दकुन्द ने उसे शिक्षाव्रतों में परिग्रहित किया है। जब दिगम्बर परम्परा ही इस प्रश्न पर एकमत नहीं है तो फिर इस आधार पर पउमचरियं की परम्परा का निर्धारण कैसे किया जा सकता है ? साम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थिरीकरण के पूर्व निर्ग्रन्थ परम्परा में विभिन्न धारणाओं की उपस्थिति एक सामान्य बात थी। अतः इस ग्रन्थ के सम्प्रदाय का निर्धारण करने में व्रतों के नाम एवं क्रम सम्बन्धी मतभेद सहायक नहीं हो सकते । पउमचरियं में अनुदिक् का उल्लेख हुआ है ।१७ श्वेताम्बर आगमों में अनुदिक् का उल्लेख नहीं है, जबकि दिगम्बर ग्रन्थ (यापनीय ग्रन्थ) षट्खण्डागम एवं तिलोयपण्णत्ती में इसका उल्लेख पाया
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