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________________ सागरमल जैन SAMBODHI में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त देने का विधान किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से सम्प्रदाय-भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिए। हो सकता है इसके कर्ता जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती भी हों । किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो आगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है। अतः यह उसके बाद की ही रचना होगी । इसका काल भी ई.सन् की पांचवी शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिए। इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मान्यता तभी सम्भव हो सकती है, जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद के पूर्व निर्मित हुआ 1 स्पष्ट संघ-भेद पांचवी शती के उत्तरार्द्ध में अस्तित्व में आया है । छेद वर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ने किया था, यह सुनिश्चित है । आचार्य हरिभद्र का काल ई. सन् की आठवीं शती माना जाता है । अत: यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित हुआ होगा । हरिभद्र इसके उद्धारक आवश्यक हैं, किन्तु रचयिता नहीं । मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके त्रुटित भाग की रचना की हो। इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है । 110 मूलसूत्रों के वर्ग में दशवैकालिक को आर्य शय्यंभव की कृति माना जाता है । इनका काल महावीर के निर्वाण के ७५ वर्ष बाद का है । अतः यह ग्रन्थ ई.पू. पांचवी - चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन यद्यपि एक संकलन है, किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं है । इसकी भाषा-शैली तथां विषयवस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे ई. पू. चौथी - तीसरी शती का ग्रन्थ माना है । मेरी दृष्टि में यह पूर्व प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था । इसकी अनेक गाथाएँ तथा कथानक पालित्रिपिटक साहित्य, महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं। दशवैकालिक और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे हैं, अतः ये भी संघ - भेद या सम्प्रदाय-भेद के पूर्व की रचना है । अत: इनकी प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। 'आवश्यक' श्रमणों की दैनन्दिन क्रियाओं का ग्रन्थ था अतः इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान् महावीर के समकालिक ही माने जा सकते हैं। चूँकि दशवैकालिक उत्तराध्ययन और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा में भी मान्य रहे हैं, अत: इनकी प्राचीनता असंदिग्ध I प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है । अतः ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन हैं ही, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता । पुनः आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आ प्रकीर्णकों की सैंकड़ौ गाथाएँ यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में पायी जाती है, मूलाचार एवं भगवती आराधना भी छठ्ठीं शती से परवर्ती नहीं हैं । अतः इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई. सन् की चौथी - पांचवी शती के परवर्ती नहीं माना जा सकता । यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ प्रकीर्णक नवीं दसवीं शती की रचनाएँ हैं । इसी प्रकार चूलिकासूत्रों के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है। अतः वह ई. सन् की प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए । नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवधि से पूर्ववर्ती है अत: उनका काल भी पांचवी शताब्दी से परवर्ती नहीं हो सकता । इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपों को छोड़कर अधिकांश ग्रन्थ तो ई. पू. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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