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________________ Vol. XXXVI, 2013 प्राकृत आगम साहित्य : एक विमर्श “आउरपच्चक्खाण” के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की कृति है | इनमें नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं । इस प्रकार नन्दी एव पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है । ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के कुछ आचार्य जो ८४ आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या १० के स्थान पर ३० मानते हैं । इसमें पूर्वोक्त २२ नामों के अतिरिक्त निम्न ८ प्रकीर्णक और माने गये हैं पिण्डविशुद्धि पर्यन्त-आराधना, योनिप्राभृत, अंगचूलिका, वृद्धचतु:शरण, जम्बूपयन्ना और कल्पसूत्र । 1 99 जहाँ तक दिगम्बर परम्परा एवं यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे स्पष्टतः इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती है, फिर भी मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की गई हैं । इसी प्रकार भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथाएँ अवतरित हैं । ज्ञातव्य है कि इनमें अंग बाह्यों को प्रकीर्णक कहा गया है । २ चूलिकासूत्र चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार – ये दो ग्रन्थ माने जाते हैं । जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों को मान्य रहे हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ६ छेद, १० प्रकीर्णक, २ चूलिकासूत्र • ये ४५ आगम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य हैं । स्थानकवासी व तेरापन्थी इसमें से १३ को . कम करके ३२ आगम मान्य करते हैं । - जो लोग चौरासी आगम मान्य करते हैं, वे दस प्रकीर्णकों के स्थान पर पूर्वोक्त तीस प्रकीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियों तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनिर्युक्ति और विशेषावश्यकभाष्य को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं । इस प्रकार वर्तमानकाल में आगम साहित्य को अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है । १२ वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है । वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द्र की सुखबोधा समाचारी (ई. सन् १९१२ ) में आंशिक रूप से उपलब्ध होती है। इसमें आगम-साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अंग, उपांग आदि की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी । किन्तु वर्तमानकाल में जिस प्रकार से वर्गीकरण किया जाता . है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था । उसमें मात्र अंग- उपांग, आदि अवधारणा उस युग में बन चुकी थी । किन्तु वर्तमानकाल में जिस प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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