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Vol. XXXV, 2012. अद्वैत वेदान्त एवं शुद्धादैत में तत्त्वमीमांसा : एक दृष्टि 127 उपादान ब्रह्म तथा करण माया है इसके विपरीत संसार का उपादान तथा करण दोनों अविद्या है, अत: जगत् को ब्रह्मात्मक और संसार को अविद्यात्मक कहा है ।१५ शुद्धाद्वैतवादी वल्लभाचार्य के अनुसार जीवन्मुक्ति के समय संसार नष्ट होता है, प्रपंच का लय तभी होता है, जब प्रलयावस्था में आत्मरमण की इच्छा से ब्रह्म उसे अपने स्वरूप में प्रत्यावर्तित कर लेता है ।१६ ..
__ अद्वैत वेदान्त तथा शुद्धाद्वैत में सबसे प्रमुख अन्तर ज्ञान तथा भक्ति का है । अद्वैत वेदान्त में मुक्ति ज्ञान पर आधारित है "ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः" पर आधारित है जिसके अनुसार जीव को स्वरूप ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) के बिना मोक्ष प्राप्ति नहीं होती । अद्वैत मत के अनुसार भक्ति का पर्यवसान भी ज्ञान में ही होता है । स्वयं कृष्ण ने भी भक्त की अपेक्षा ज्ञानी को अधिक प्रिय माना है, तथापि शुद्धाद्वैत में भक्ति को मुक्ति का अनिवार्य साधन स्वीकार किया गया है ज्ञान को नहीं, ज्ञान तो भक्ति में बाधक है ।१८ शुद्धाद्वैतवादी वल्लभाचार्य के मतानुसार भक्ति का पर्यवसान ज्ञान में न होकर स्वयं ज्ञान को भक्ति का अंग बताया है । शुद्धाद्वैत तथा अद्वैत मत की मुक्तिपरक विचारधारा में भी भेद दृष्टव्य है । शुद्धाद्वैत की भगवत्सायुज्यादिस्वरूपिणी मुक्ति अद्वैत मत की जीवैक्यस्वरूपिणी मुक्ति से भिन्न है तथा दोनों मतों की आत्मानुभव सम्बन्धी दृष्टि में भी मौलिक भेद है । शुद्धाद्वैत मत में भक्त को इन्द्रियों एवं अन्तःकरण द्वारा आनन्द प्राप्त होता है जब कि अद्वैत मत में जीव आत्मानन्द की स्थिति में जो आनन्द अनुभव करता है, वह इन्द्रिय, मन, बुद्धि से अतीत है, क्योंकि आत्मा इन्द्रियादि . से परे है ।
उपरोक्त आलेख में तत्त्वमीमांसीय अध्ययन में अद्वैत एवं शुद्धाद्वैत के ब्रह्म, जीव, जगत्, माया, मोक्ष को केन्द्र बिन्दु रखकर दृष्टिगोचर होता है परन्तु अद्वैत एवं शुद्धाद्वैत के सिद्धान्तों में यत्किंचित् साम्य होते हुए भी पर्याप्त भेद दृष्टिगोचर होता है ।
. संदर्भ सूची: १. दिग्देशगुणगतिफलभेदशून्यं हि परमार्थसदद्वयं ब्रह्म, शांकर भाष्य, छान्दोग्य उपनिषद् ८/१/१ २. मायासम्बन्धरहितं शुद्धमित्युच्यते बुधैः, शुद्धाद्वैतमार्तण्ड २८ ३. ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य ३/२/२०. ४. यथा जले चन्द्रमसः प्रतिबिम्बतस्य तेन जलेनकृतो गुणः कम्पादिधर्मः आसन्नो विद्यमानो मिथ्यैवदृश्यते — न वस्तुतश्चन्द्रद्वय एवमनात्मनो देहादेधर्मो जन्मबन्धदुःखादिरूपो द्रष्टुशत्मनो जीवस्य न ईश्वरस्य ।, सुबोधिनी,
श्रीमद्भागवत ३/७/११ ५. वादावलि, पृ. ६ ६. गौड़पाद कारिका ४/५८ ७. अणुभाष्य १/१/६ ८. मायायाअपि भगवच्छक्तित्वेन शक्तिमदभिन्नत्वात्, प्रस्थान रत्नाकर, पृ. १५९