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________________ 83 Vol.XXXIY, 2011 जैन दार्शनिकों का अन्य दर्शनों को त्रिविध अवदान हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं के किसी भी आचार्य ने अपने काल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देने की दृष्टि से किसी भी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। उनके ग्रन्थों में अपने विरोधी मतों का प्रस्तुतीकरण मात्र उनके खण्डन की दृष्टि से ही हुआ है । जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने अन्य दर्शनों के विवरण तो प्रस्तुत किये हैं, किन्तु उनकी दृष्टि भी खण्डनपरक ही हैं । विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से मल्लवादी का नयचक्र महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कहा जा सकता है किन्तु उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपूर्णता को सूचित करते हुए अनेकान्तवाद की स्थापना करना है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के शब्दों में नय चक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं हैं। जिस प्रकार उस मत की स्थापना दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उत्थापन भी विरोधी मतों की दलीलो से हो सकता है । स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता रहता है । अतएव अनेकान्तवाद में ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें, तभी उचित हैं अन्यथा नहीं । नयचक्र की मूलदृष्टि भी स्वपक्ष अर्थात् अनेकान्तवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की ही है । इस प्रकार जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव से कोई भी दर्शन-संग्राहक ग्रंथ नहीं लिखा गया। __जैनेतर परम्पराओं के दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में आचार्य शंकर विरचित माने जाने वाले सर्वसिद्धान्तसंग्रह का उल्लेख किया जा सकता है । यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा : प्राचीन है, फिर भी इसके आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होने में संदेह है । इस ग्रन्थ में पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए अन्त में अद्वैत वेदान्त की स्थापना की गयी है । अत: किसी सीमा तक इसकी शैली को भी नयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है, किन्तु नयचक्र, अन्तिम मत का भी प्रथम मत से खण्डन करवाकर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहाँ 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' वेदान्त को एकमात्र और अन्तिम सत्य स्वीकार करता है। अत: यह एक दर्शन संग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की जो विशेषता है, वह इसमें नही है। जैनेतर परम्पराओं में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान माधवाचार्य (ई. सन् १३५०) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है। किन्तु 'सर्वदर्शनसंग्रह' की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र सम्यग्दर्शन है। सर्वसिद्धान्तसंग्रह और सर्वदर्शनसंग्रह दोनों की हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों ग्रन्थों की मूलभूत शैली खण्डनपरक ही है। अत: इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतों के प्रस्तुतीकरण में वह निष्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती है, जो हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है। . वैदिक परम्परा में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा स्थान माधवसरस्वती कृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का आता है। इस ग्रन्थ में दर्शनों को वैदिक और अवैदिक-ऐसे दो भागों में बांटा गया है। अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, और जैन ऐसे तीन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तन्त्र और सांख्य ऐसे तीन भाग किये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520784
Book TitleSambodhi 2011 Vol 34
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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