________________
80
सागरमल जैन
SAMBODHI
भी उन्हें सम्यक् रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न ही नहीं किया है । यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है, अपने ग्रन्थ धूर्ताख्यान में वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि न तो अपने विरोधी के विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उसके सम्बन्ध में अशिष्ट भाषा का प्रयोग ही करते हैं । हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्ता समुच्चय में कंपिल को महामुनि और भगवान बुद्ध.. को महा चिकित्सक कहा है, हरिभद्र के अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय में इस दृष्टिकोण का एक निर्मल विकास परिलक्षित होता है । अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं -
-
यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिः सुखावहः ।
अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है। इस ग्रन्थ में वे कपिल को दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं - (कपिलो दिव्यो हि स महामुनिः, शास्त्रवार्तासमुच्चय २३७ ) इसी प्रकार वे बुद्ध को भी अर्हत् महामुनि, सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं (यतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत्, वही ४६५, ४६६) । यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं- न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वही दूसरी. ओर हरिभद्र जैसे जैन दार्शनिक अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं । शास्त्रवार्तासमुच्चय में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की स्पष्ट समालोचना है, किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जहाँ हरिभद्र ने शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किया हो। इसी प्रकार हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं की समालोचना में भी जिस शिष्टता और आदर - भाव का परिचय दिया, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा में उपलब्ध नहीं होता है ।
यद्यपि आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोगव्यवच्छेदिका (प्रचलित नाम स्याद्वाद - मंजरी) में अन्य दर्शनों की व्यंगात्मक शैली में समालोचना की, किन्तु कहीं भी अन्य दर्शनों के प्रति अपशब्द का प्रयोग नहीं - किया है ।
सम्यक् समालोचना की यह परम्परा आगम युग से प्रारम्भ होकर क्रमश: सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क, समन्तभद्र की आप्तमीमांसा, मल्लवादी क्षमाश्रमण का द्वादशारनयचक्र, जिनभद्रगणी की विशेषणवती, विशेषावश्यकभाष्य, हरिभद्र षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका आदि ग्रन्थों में, पुनः पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि, अकलंक के राजवार्तिक, अष्टशती, न्याय-विनिश्चय आदि, विद्यानन्दी के श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्त्री आदि, प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमल मार्तण्ड, रत्नप्रभ की रत्नाकर अवतारिका, हेमचन्द्र की अन्ययोगव्यवच्छेदिका आदि में मिलती है। फिर भी यह धारा आलोचक न होकर समालोचक और समीक्षक ही रही । यद्यपि हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि परवर्ती मध्ययुग में वाद-विवाद में जो आक्रामक वृत्ति विकसित हुई थी, जैन दार्शनिक भी उससे पूर्णतया
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org