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सागरमल जैन
SAMBODHI अच्छा उदाहरण हमें मल्लवादी क्षमाश्रमण के द्वादशार नयचक्र (४थी-4वीं शती) में मिलता है, जिसमें उन्होंने अन्य दर्शनों की विधि-विधि, विधि, विधि-निषेध आदि रूपों में समीक्षा की किन्तु वे किसी दर्शन या दार्शनिक विशेषता का नाम लिए बिना, मात्र सिद्धान्त की समीक्षा करते हैं। उन्होंने प्रतिपक्षी या समन्वयक जैन दर्शन का भी नाम लिए बिना मात्र उनकी समीक्षा की है।
जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं के विचारकों के दर्शनों एवं धर्मोपदेशों के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभासियाई लगभग ई. पू. ३ शती) में परिलक्षित होता है । इस ग्रंथ में अन्य धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रवर्तकों- यथा नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है । निश्चय हो वैचारिक उदारता एवं अन्य परम्पराओं के प्रति समादर भाव का यह अति प्राचीन काल का अन्यतम उदाहरण है। अन्य परम्पराओं के प्रति ऐसा समादरभाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन साहित्य में हमें कम ही उपलब्ध होता है । स्वयं जैन परम्परा में भी यह उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी । परिणाम स्वरूप यह महान् ग्रंथ जो कभी अंग साहित्य का एक भाग था. वहाँ से अलग कर परिपार्श्व में डाल दिया गया । यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम ग्रंथों में तत्कालीन अन्य परम्पराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें अन्य दर्शनों और परम्पराओं के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं होती, जो ऋषिभाषित में थी। सूत्रकृतांग अन्य दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं का विवरण तो देता है किन्तु उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत कहकर उनकी आलोचना भी करता है। भगवती में विशेष रूपसे मंखलि गोशालक के प्रसंग में तो जैन परम्परा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर देती है । ऋषिभाषित में जिस मंखलि-गोशालक को अर्हत् ऋषि के रूप में संबोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया गया है, यहाँ यह चर्चा मैं केवल इस लिए कर रहा हूँ कि हम परवर्ती जैन दार्शनिक हरिभद्र, यशोविजयजी आदि की उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल जैन परम्परा में अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना महान है।
अन्य दर्शनों की एकान्तवादिता की समीक्षा की दिशा में किये गये प्रयत्नों में सर्वप्रथम नाम सिद्धसेन दिवाकर का आता है। उन्होंने अपने ग्रन्थ 'सन्मतितर्क' में यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि किस दर्शन का कौन सा सिद्धान्त किस नय अर्थात दृष्टिकोण के आधार पर सत्य है। उन्होंने जैन दर्शन के नयवाद की अपेक्षा से अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों की सापेक्षिकसत्यता का दर्शन कराया । उनकी इस दृष्टि का कुछ प्रभाव समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा' पर भी देखा जाता है। उन्होंने यह बताया कि वेदान्त (औपनिषदिक वेदान्त) संग्रहनय से, बौद्ध दर्शन का क्षणिकता का सिद्धान्त ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से तथा न्याय-वैशेषिक दर्शनों के सिद्धान्त व्यवहार नय की अपेक्षा से सत्य प्रतीत होते हैं । यही दृष्टि आगे चलकर समत्वयोगी आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों में भी विकसित हुई । जैन दार्शनिकों में सर्व प्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है । उन्होंने बत्तीस द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दसवीं में योग-विद्या, बारहवी में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवी में
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