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Vol. XXXIII, 2010
जैनधर्म और श्रुतदेवी सरस्वती
कठिन है। अर्धमागधी आगमों में यह एक ऐसा ग्रन्थ है जो स्पष्ट रूप से श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) का उल्लेख करता है । इसके प्रारम्भिक अध्ययन में ३ गद्यसूत्रों के पश्चात् ४ से ५० तक गाथाएँ है। उसके पश्चात् पुनः ५१ वां गद्यसूत्र है। उसमें कोष्टबुद्धि आदि ज्ञानियों को नमस्कार करने के पश्चात् 'नमो भगवतीए सुयदेवाए सिज्झउ में सुयाहिया विज्जा' इस रूप में श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) को नमस्कार करके उससे यह प्रार्थना की गई है कि सूत्र अधीत विद्या मुझे सिद्ध हो । पुनः यह भी कहा गया है कि-'एसा विज्जा सिद्धतिएहिं अक्खरेहिं लिखिया एसा य सिद्धतिया लीवी अमुणिय समय सब्मावाणं सुयघरेहिं न पन्नवेज्जा तह य कुसीलाणं च'-यह लिखित विद्या श्रुतघरों को ही प्रज्ञप्त करे कुशीलों को नहीं । पुनः महानिशीथसूत्र के अन्तिम आठवे अध्याये में चौबीस तीर्थंकरों और तीर्थ को नमस्कार करने के प्रश्चात् 'नमो सुयदेव्याए भगवईए' कहकर श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) को नमस्कार किया गया है । श्रुतदेवता कोई देवता या देवी है, यह बात आगमिक परम्परा में कालान्तर में ही स्वीकृत हुई है, क्योंकि जैसा हमने पूर्व में कहा है कि प्राचीन आगमों में तो सरस्वती या श्रुतदेवता जिनवाणी ही रही है । महानिशीथसूत्र में ही सर्वप्रथम यह कहा गया कि श्रुतदेवता मेरी अधीत विद्या को सिद्धि प्रदान करें । श्रुतदेवता एक देवी है, ऐसा उल्लेख सर्वप्रथम महानिशीथसूत्र के उद्धारक आचार्य हरिभद्र (८ वी शती) ने अपने ग्रन्थ पंचाशक प्रकरण में भी किया है। उसमें कहा गया है कि -
रोहिणी अंबा तह मंदउण्णया सव्वसंपयासोक्खा ।
सुयसंतिपुरा काली सिद्धाईया तहा चेव ॥ रोहिणी, अम्बा, मन्दपुण्यिका, सर्वसम्पदा, सर्वसौख्या, श्रुतदेवता, शान्तिदेवता, काली, सिद्धायिकाये नौ देवता है । इसकी टीका में भी श्रुतदेवता की आराधना हेतु तप करने की विधि बताते हुए कहा गया है कि श्रुतदेवता की आराधना हेतु किए जाने वाले तप में ग्यारह एकादशी पर्यन्त उपवासपूर्वक मौन व्रत रखना चाहिए तथा श्रुतदेवता की पूजा करनी चाहिए । ज्ञातव्य है कि पूर्व में उल्लेखित पंचकल्पभाष्य में भी श्रुतदेवता को व्यन्तर जाति के देव बताया गया है। ___मेरी जानकारी में अर्धमागधी आगम साहित्य में इसके अतिरिक्त श्रुतदेवी या सरस्वती का कोई उल्लेख नहीं । उसमें अनेक जाति के देव-देवियों के उल्लेख तो हैं, किन्तु सरस्वती या श्रुतदेवी की मात्र जिनवाणी के रूप में ही चर्चा है, किसी देव या देवी के रूप में नहीं है। वह व्यन्तर देवी है, यह उल्लेख भी परवर्ती है। यद्यपि जैन सरस्वती की विश्व में सबसे प्राचीन प्रतिमा मथुरा से उपलब्ध होने से पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि जैनों में सरस्वती या श्रुतदेवी की अवधारणा प्राचीन है, किन्तु साहित्यिक उल्लेख परवर्ती युग के हैं । सर्वप्रथम हमें आगमेतरग्रन्थ पउमचरियं (विमलसूरि) एवं अंगविज्जा में उसके एक देवी के रूप में उल्लेख मिलते है। पउमचरियं (३/५२) में सरस्वती का उल्लेख बुद्धि देवी के रूप में हुआ है जो इन्द्र की आज्ञा से तीर्थंकर माता की सेवा करती है । अंगविज्जा (५८ पृ. २२३) में भी उसे एक देवी माना गया है । इन दो उल्लेखों बाद सरस्वती का सीधा उल्लेख हरिभद्र के ८ वीं शती के ग्रन्थों में ही मिलता है। अंगविज्जा और पउमचरियं का काल लगभग ईसा की दूसरी का माना गया है।