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कमला गर्ग, रजनी पाण्डेय
SAMBODHI
को संरक्षण एवं आश्रय देना राजसी वैभव और गरिमा का प्रतीक था । सुप्रसिद्ध लेखिका जोन एल. अर्डमैन के शब्दों में :
"संगीत वोकल एण्ड इंस्ट्रमेण्टल इन डान्स ड्रामा वाज एन और्नामेण्ट ऑफ अथॉरिटी एण्ड पॉवर (एज तानसेन वाज ए ज्वैल इन अकबर्स कोर्ट), एन एकम्पनीमेण्ट ऑफ सरेमनी एण्ड सैलीबरेशंस, वैदर रिलीजिअस, फोक ऑर द शास्त्रीय संगीत ट्रेडीशन ।"५ ।
इस आधार पर यह अनुमान लगाना कदापि अनुचित नहीं लगता कि आमेर जयपुर के राजवंश में कलासंस्कृति के पोषण की परिपाटी का बीजारोपण कछवाहा राजपूतों के आमेर जयपुर क्षेत्र में पदार्पण के साथ ही हुआ होगा । जयपुर राजवंश की संगीत तथा कलात्मक परम्परा
जयपुर के कछवाहा राजवंश में ललित कला प्रेम की सलिला सदा ही प्रवाहित होती रही है। यहा राज दरबार में कलावन्त आश्रय पाते थे । संगीत के साथ-साथ अन्य ललित कलाओं-काव्य, चित्र, मूर्ति तथा वास्तु को भी. पर्याप्त संरक्षण मिलता था । मूर्धन्य भाषाविद्, पंडित, महान ज्योतिषविद्, विद्वान, कवि, चित्रकार, शिल्पकार तथा संगीतज्ञ आमेर जयपुर नरेशों से सदैव स्नेहाश्रय प्राप्त करते रहे ।
जयपुर राजवंश की कलाप्रियता के कारण जयपुर का वातावरण कलाकारों के लिये सदैव अनुकूल बना रहा । कला की प्रत्येक विधा को राज्य से निरन्तर प्रोत्साहन प्राप्त होता था। राज दरबार ने कलाकारों को समाजिक तथा आर्थिक सरंक्षण प्रदान किया और कलाकारों ने निर्मल उन्मुक्त मन से कला साधना की । फलस्वरूप कला की उत्कृष्ट ऊंचाईयों को स्पर्श करती हुई अद्वितीय कृतिया समाज को उपहार स्वरूप प्राप्त हुई ।
जयपुर राजवंश में कलाकारों को जहाँ सुरक्षा और जीविकोपार्जन की पूर्ण सुविधा थी तथा पुरस्कार एवं सम्मान प्रदान किया जाता था वहीं विद्वान कलापारखी नरेश स्वयं अपना मंतव्य तथा आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी रखते थे, जिससे कलाकरों को निरन्तर आपनी कला की और निखारने का अवसर प्राप्त होता रहता था ।कलाकार तथा संरक्षक दोनों पर ही कला उन्नति निर्भर करती है। दोनों का संबन्ध अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है, जिसकी प्रगाढ़ता तथा घनिष्ठता ही कला की उन्नति की कसौटी है । कला तथा कला संरक्षक दोनों सदा ही एक दूसरे के पूरक होते हैं । कलाकार अपनी कला द्वारा जहाँ एक ओर सांस्कृतिक परम्परा का निरन्तर निर्वाह करते हुए उसे विकास की ओर अग्रसर करता है वहीं कला संरक्षक तथा कला पारखी कलाकार के माध्यम से, संस्कृति से आत्मीय स्तर पर संवादात्मक स्थिति का अनुभव कर पाने में सक्षम होते हैं । यह भावनात्मक जुड़ाव संस्कृति तथा परम्परा दोनों के समन्वय से ही संभव होता है । परम्परा ही संस्कृति की पोषक है । परम्परा के माध्यम से ही विरासत में प्राप्त संस्कृति भविष्य की पीढ़यो को प्राप्त होती है । कला संरक्षको ने जब जब संस्कृति को आश्रय दिया है तब तब परम्परा के रूप में कला व संस्कृति ने अपने संरक्षक तथा समाज को कलात्मक तथा सांस्कृतिक उन्नति के नवीन सोपान प्रदान किया हैं ।