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यास्क एवम् पाणिनि - काल तथा विषयवस्तु का अन्तराल
में भी प्रयुक्त होते है । यथा १. हरिभ्यां याह्योक आ । २. आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि || (यहाँ याहि क्रियापद के पीछे आ का प्रयोग है, एवं आ और याहि के बीच में अन्य नामपदों का प्रयोग भी हुआ है ।) इसी तरह से छन्दसि च । (6-3-126), छन्दस्युभयथा । (6-4-5), तुमर्थे सेसेनसेअसेन्क्सेकसेन ........ (3-4-9) इत्यादि सूत्रों से लौकिक संस्कृत भाषा के विरोध में वैदिक संस्कृत भाषा का वर्णन बाद में ही किया गया ||
Vol. XXXIII, 2010
अब वैदिक संस्कृत भाषा का वर्णन करने के लिए पाणिनि ने जो वर्णनात्मक शैली अपनायी है उसे देखे तो पाणिनि ने व्यत्ययो बहुलम् । बहुलं छन्दसि । विभाषा छन्दसि । अन्येभ्योऽपि । जैसे सूत्रों प्रस्तुत करके लौकिक शब्द - प्रयोग के अनुसन्धान में वैदिक शब्द-प्रयोगों की अनियमितता ही बार बार उल्लिखित की है । यानें वेद की भाषा में नियमित प्रयोगों की परिगणना ही सुदुर्लभ है, और केवल अनियमितता ही सार्वत्रिक रूप प्रवर्तमान है ऐसा पाणिनि का निरीक्षण है ॥ तथापि यह भी कहना होगा कि यास्क की अपेक्षा से पाणिनि ने वैदिक भाषा के लिए बहुत अधिक कहा है। जैसे कि कुछ १. यास्क ने वैदिक क्रियापदों के सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहा है। लेकिन पाणिनि ने सभी प्रकार के क्रियापदों की विभिन्न अर्थच्छायायें बताई है । २. वैदिक क्रियापदों के रूप-वैविध्य को भी विस्तार से उल्लिखित किया है । एवं ३. लौकिक संस्कृत भाषा के प्रत्येक धातु, प्रत्ययादि, सम्बोधन वाचकादि पदों में तथा वेदमन्त्रों के शब्दों में उदात्तादि स्वर कैसे होते है इन सब का निरूपण किया है । परन्तु यास्क ने इन में से किसी का भी वर्णन नहीं किया है । ४. पाणिनि ने स्वरभेद के आधार पर अर्थभेद होता है - - इस विषय का जो निरूपण षष्ठाध्याय में किया है वह ध्यानाकर्षक है । यास्क इस विषय की और केवल अङ्गुलिनिर्देश करके रुक जाते है ॥ उपसंहार
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यास्क ने वेदमन्त्रों के शब्दों का आख्यातजत्व दिखलाके, वेदमन्त्रों के प्रचलित अर्थों की प्रमाणपुरस्सरता सिद्ध की है । वेदशब्दों के निर्वचन के निमित्त से उन्हों ने, भाषा में शब्दार्थ - सम्बन्ध की गवेषणा का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । इस तरह, यास्क की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जो कौत्स जैसे वेदविरोधी आचार्यों खडे थे, उस विरोध के अनुसन्धान में प्रचलित वेदार्थों का समर्थन करके उन्हों ने अपनी इतिकर्तव्यता दृढता से और पूर्णतया निभाई है । तथा शब्दार्थ - सम्बन्ध की गवेषणा करके भाषाचिन्तन में अपना चिरस्मरणीय विशिष्ट योगदान दिया है ।
तथा पाणिनि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जो व्याकरण - विचार केवल वर्ण और पद तक सीमित था, उसको देखते हुए हम कहे सकते है कि भाषाचिन्तन के क्षेत्र में पाणिनि का योगदान तो विश्वतोमुखी है । संस्कृतभाषा के लौकिक एवं वैदिक दोनों स्वरूप का वर्णन करनेवाले वैयाकरण के रूप में वे न केवल प्रथम आचार्य है, वे अद्यावधि अद्वितीय भी है । उन्हों संस्कृतभाषा के प्रकृति+प्रत्यय की संयोजना दिखाने के लिए जो व्युत्पत्तियाँ प्रस्तुत की है, और उसके लिए जो स्वोपज्ञ प्रक्रिया का प्रदर्शन किया है वह आज की वैज्ञानिक तकनिकों से बहेतर एवम् उन्नततर भी है ।