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________________ अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार दीपक रंजन मानव मस्तिष्क जिज्ञासाओं का एक ऐसा महासागर है, जिसमें विचार तरंगे प्रतिपल, प्रतिक्षण तरंगित होती रहती है । जीवन और जगत्, चित्त और अचित सत्ता और परम सत्ता के सम्बन्ध में विविध प्रश्न उबुद्ध होते रहते हैं, उसका तर्कबुद्धि और अर्न्तदृष्टि से समाधान करना ही दर्शन है । वैराग्यवादी, आध्यात्मवादी और निवृत्तिवादी के पोषक जैनदर्शन की मौलिक असाधारण एवं विलक्षण सूझ अनेकान्तवाद है, जो वास्तविक सत्य का साक्षात्कार करने में सहायक है। यह एक दार्शनिक सिद्धान्त होने की अपेक्षा दार्शनिक मन्तव्यों, मान्यताओं और स्थापनाओं को उनके सम्यक् परिपेक्ष्य में व्याख्यायित करने की पद्धति विशेष है । इस प्रकार अनेकान्तवाद का मूल प्रयोजन सत्य को उसके विभिन्न आयाम में देखने, समझने और समझाने का प्रयास करना है । अत: वह सत्य के खोज की एक व्यवहारिक पद्धति है, जो सत्ता को उसके विविध आयामों में देखने का प्रयत्न करती है । दार्शनिक विधि दो प्रकार की होती है - 'बौद्धिक ' और 'आनुभविक' बौद्धिक विधि सैद्धान्तिक होती है, इसके विपरीत आनुभविक विधि सत्य की खोज मानव अनुभूतियों के सहारे करती है । अनेकान्तवाद की विकास यात्रा आनुभविक पद्धति के सहारे चलती है। उसका लक्ष्य 'सत्य क्या है?' यह बताने की अपेक्षा 'सत्य कैसा अनुभूत होता है ?' यह बताना है। आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्त, वाणी में स्यादवाद और समाज में अपरिग्रह, इन चार महान् स्तम्भों पर जैन दर्शन का भवन खड़ा है। अनेकान्तवाद जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा का आधारभूत सिद्धान्त है। यह चिन्तन की एक ऐसी अवधारणा है जिसमें विभिन्न दृष्टिकोणों के माध्यम से किए गए चिन्तन से निगमित सिद्धान्तों का समन्वयात्मक रूप उपलब्ध होता है । इसके माध्यम से हमें वस्तु सत्ता के वास्तविक और यथार्थ स्वरूप को समझने में सहायता मिलती है । अनेकान्तवाद के द्वारा समाज में व्याप्त विषम परिस्थिति को दूर करने का प्रयास किया गया है । विभिन्न दृष्टि के सत्यों में एकरूपता लाने, उनमें समन्वय एवं सामञ्जस्य स्थापित करने तथा दुराग्रह एवं अभिनिविष्ट वृत्ति को छोड़कर स्वस्थ्य, पवित्र एवं तटस्थभाव से सत्य की खोज करने के प्रयत्न में अनेकान्त का उद्भव हो जाता है। वैसे अनेकान्तवाद की पूर्ण व्याख्या जैनदर्शन में ही है परन्तु इसके प्रारम्भिक बीज उपनिषद् में मिलते हैं । कठोपनिषद् में ब्रह्म के विषय में कहा गया है कि 'अणोरणीयान्महतो महीयान्' अर्थात् वह अणु से भी अणु और महान से भी
SR No.520782
Book TitleSambodhi 2009 Vol 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages190
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size19 MB
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