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मनसुख मोलिया
SAMBODHI
वज्र९
१०
ये सभी छन्द हेमचन्द्राचार्य के पूर्ववर्ती किसी भी छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हैं । अतः ये छन्द हेमचन्द्राचार्य का संस्कृत छन्दःशास्त्र को अनन्य प्रदान है ।
स्वोपज्ञवृत्ति में हेमचन्द्राचार्य ने कई आचार्यों के मत उनके नामनिर्देश के साथ या नामनिर्देश के बिना 'केचित्', 'अन्येषाम्', 'अन्यस्य' आदि शब्दों से प्रस्तुत किये हैं । आचार्य द्वारा उद्धृत कई निर्देश ऐसे हैं, जो आजकल किसी भी छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थ में प्राप्य नहीं हैं। ये निर्देश छन्दःशास्त्र की कई लुप्त कड़ियों की ओर संकेतरूप हैं । नयनय गणविधान को हेमचन्द्राचार्य कुसुमविचित्रा कहते हैं, और उसकी वृत्ति में लिखते हैं, "अन्यों के मतानुसार इस छन्द का नाम मदनविकारा या गजलुलित है।"१६ मदनविकारा नाम तो जयकीर्ति के छन्दोऽनुशासन में प्राप्त होता है, लेकिन इस छन्द को गजलुलित नाम से लक्षित करनेवाला कोई भी निर्देश कहीं से उपलब्ध नहीं है । इससे पत्ता चलता है कि हेमचन्द्राचार्य के समक्ष छन्दःशास्त्र के कुछ ऐसे ग्रन्थ विद्यमान थे, जो आज प्राप्य नहीं है। इस प्रकार के कई निर्देश छन्दोऽनशासन में हैं, जिनके मूलस्रोत का पत्ता नहीं चलता है । उदाहरण के लिए निम्नलिखित छन्दों को देखिए । छन्द-नाम
अक्षरसंख्या गणविधान अन्य आचार्यों का मत (१) अभिमुखी
नलग
मृगचपला८ (२) मधुकरिका
तनग (३) रुक्मवती
भमसग (४) कलहंस
नभजय छन्दोऽनुशासन में भरतमुनि का निर्देश ३४ बार हुआ है । नाट्यशास्त्र के पाठ की समीक्षा में हेमचन्द्राचार्य कृत ये निर्देश महत्त्वपूर्ण हैं । अभिनवगुप्ताचार्य की अभिनवभारती और हेमचन्द्राचार्य की स्वोपज्ञवृत्ति छन्दश्चूडामणि से नाट्यशास्त्र की दो भिन्न परम्पराओं का पत्ता चलता है। हेमचन्द्र के निर्देश के अनुसार नाट्यशास्त्र के दूषित पाठ की सुधारणा की जा सकती है। इन निर्देशों से नाट्यशास्त्र का कुछ अंश लुप्त होने का आधार भी मिलता है। सुमुखी छन्द की वृत्ति में हेमचन्द्र लिखते हैं, "भरत के मतानुसार यह ललिता छन्द है ।"२२ नाट्यशास्त्र के उपलब्ध संस्करणों में यह भग गणमाप का छन्द मिलता है, जिसे सुप्रतिष्ठा नाम दिया गया है ।२३ लेकिन एक भी संस्करण में उसका ललिता नाम प्राप्य नहीं है। इससे अनुमान कर सकते हैं कि हेमचन्द्राचार्य के समक्ष नाट्यशास्त्र का ऐसा संस्करण रहा होगा, जिसमें भग गणमाप के इस छन्द के लिए ललिता नामाभिधान होगा। लेकिन आज हमें वह पाठ उपलब्ध नहीं है।
स्वयम्भूविरचित स्वयम्भूच्छन्दस् का प्रकाशन ई० स० १९६२ में राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से हुआ है। इस ग्रन्थ का कुछ अंश खण्डित है। इसके खण्डितांश का समर्थन छन्दोऽनुशासन से भी होता है । हेमचन्द्राचार्य ने तेरह अक्षरों और नसततग गणविधान युक्त छन्द को विद्युन्मालिका कहा है ।२४ यह छन्द हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती अन्य ग्रन्थों में नहीं है । लेकिन स्वयम्भूच्छन्द के आरम्भ में त्रुटित पद्य में नसततग गणविधान है । अतः कह सकते हैं कि हेमचन्द्राचार्य के इस छन्द का मूलस्रोत
सुभावा० मुखर