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विभूति वि० भट्ट
SAMBODHI
कृ०), अमदावाद-१९८६, पृ० ९६-१०५ ३अ. गु० ए० ले० भा०३, लेख नं० २०९, श्लोक-१४-१६; अर्बुदगिरि की नेमिनाथ प्रासाद या तेजपाल प्रशस्ति (आ०
प्र०) श्लो० २८, संपा० मुनि पुण्यविजय; सुकृत कीर्तिकल्लोलिन्यादि वस्तुपाल प्रशस्ति- संग्रह (सु० की० क०)
बोम्वे, १९६१; गिरनारप्रशस्ति लेखांक-३, श्लोक-१४-१६, पृ० ५०, सो० कृ० पृ० १०५ ४. मुनि जिनविजय (संपा०) सोमेश्वर देव, 'कर्णामृत प्रपा सुभाषितावली,' जोधपुर, १९६०, पृ० २१. ४अ. पं० शिवदत्त एन्ड के० पी० परब (संपा०) काव्यमाला सिरीझ, बोम्बे १९०२, सोमेश्वरदेव, 'सुरथोत्सव महाकाव्य' (सु०
उ०), श्लोक-३४; प्रो० ओ० बी० काथवटे (संपादक), सोमेश्वर देव, 'कीर्तिकौमुदी', बोम्बे १८८३ (की० को०) सर्ग र, श्लोक-४७-४८; की० कौ०प० पृ० ३३; गु० ऐ० ले० नं० १४७, श्रीपालकृत 'वडनगर प्राकार प्रशस्ति', श्लोक- १५ दु० के शास्त्री, 'गुजरातनो मध्यकालीन राजपूत इतिहास' (गु० म० रा० इ०), अमदावाद, १९५३, पृ०
३४४-५०, सो० कृ० पृ० १०५ ६. सु० उ० १५। ३२, गु० म० रा० इ० पृ० ३५०, की० कौ० प०, पृ- ३२-३४ ७. सु० उ०, १५ । ३१-३२, ३६-३८, की० कौ० प० पृ० ३५, 'गु० म० ए० इ० पृ० ३५०, ३९५-४०२'
गु० ऐ० ले० भा-३, नं० २०९, नं० २०३, ७अ. की० कौ० परिशीलन, प्र० ६७-७३, मेवाड के गुहिलवंश के राजा रणसिंह को लवणप्रसाद के पिता अर्णोशारने
पराजित किया जो भीमदेव (२) का सामंत था । सु० उ० १५ । ३९-कुमारने कटुकेश्वर महादेव की आराधना करके अजयपाल को बचाया। सु० की० क० श्लो० १४-१६, पृ०५० गुणवसहि प्रासाद निर्माण करने की अनुमति तेजपाल मंत्री को यही सामंतसिंह ने दी थी. जिसने अजयपाल चौलक्य राजा को युद्ध में बचाने में सहायता दी थी। गु० म० रा० इ० पृ० ३९५.
स० १०. आ० प्र० श्लोक० ३१ सु० उ० ४।६८, ४७ =गि० प्र० शि० ले० १, श्लोक ६ (ले० नं० ३८।१-६), सो० कृ०
पृ० १०५ में करीब ९ श्लोक अन्य कृतियों में आये हैं इसकी नोंध है। ११. सो० कृ० पृ० ९६-१०५
श्री पुण्यविजयजी (संपा०) महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण महोत्सव अंक, भाग-२, "पुण्यश्लोक महामात्य वस्तुपालना
बे अप्रसिद्ध शिलालेखो तथा प्रशस्ति लेखो", (म० जै० वि० सु०), मुम्बई, १९६८, पृ० ३०२-३०८ १२.अ. पृ० ३०२-३०८, सोमेश्वरदेव कृत 'वस्तुपाल प्रशस्ति लेखांक-३ (५४ श्लोकवाला); दु० के० शास्त्री उपर्युक्त; १३. विभूति वि० भट्ट, 'फार्बस त्रैमासिक'. "शत्रुजय परना बे शिलालेखों", अंक-४, जुलाई- सप्टे, १९७७, पुण्यविजय
(संपा०) सु० की० क०, 'शत्रुजय पद्या (पाजा) शिलालेख', पृ० ७५, 'वस्तुपाल तीर्थयात्रा लेख' में वस्तुपालने वि०
स० १२४९-१२८८ पर्यंत १३ यात्रा करने का प्रमाण है। १४. (१) शत्रु० शि० ले० १, श्लोक -२ स्वैरं भ्राम्यतु नाम० = मालधारी नरेन्द्रप्रभसूरि, व०प्र० श्लो०२४; सु० की०
की० क, पृ० ३२, (२) शत्रु० शि० ले०१ श्लो० ३ = देव स्वर्नाथ ! कष्टं = मालधारी नरेन्द्रप्रभसूरि ,व० प्र० श्लो० २७; सु० ष्टं की०
क० पृ० ३२, (३) शत्रु० शि० ले०१ श्लो० ४ = विश्वेऽस्मिन् कस्य = चंद्रप्रभसूरि, जितकल्पवृत्ति, श्लो० ३८; सु० की० क०,
पृ० ९७ (४) शत्रु० शि० ले०१ श्लो ५ = स० एष० निःशेष विपक्ष० = मल० नरेन्द्रप्रभसूरि, व० प्र० श्लोक० ३६; सु०