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________________ Vol. XXX, 2006 यूनानी सम्राट् मिलिन्द.... दुःखी की व्याख्या करते हुये तथागत का कथन है : "जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मृत्यु भी दुःख है, रोना भी दुःख है, कल्पना भी दुःख है, मनः सन्ताप भी दुःख है । अप्रिय के साथ संयोग और प्रिय से वियोग भी दुःख है ।“ आशय यह है कि जगत् के प्रत्येक कार्य, प्रत्येक घटना में दुःख की सत्ता बनी हुई है । २९ " मिलिन्द " नागसेन से प्रश्न करते हैं कि “किस कारण उन्होंने (बुद्ध ने) जन्म इत्यादि से छूट जाना बतलाया है। नागसेन उत्तर देते हैं कि "महाराज ! जैसे हिमालय पहाड़ पर वृष्टि होने से जल की धारा वृक्ष और पत्थरों को गिराती हुई पार हो जाती है वैसे ही संसार में जीव पाप में पड़कर अनेक दुःख भोगते हैं । संसार में बार-बार जन्म लेना ही सबसे बड़ा दुःख है। जन्म और मृत्यु के इस प्रवाह का रुक जाना ही यथार्थ सुख है । इसी प्रवाह को रोकने का उपदेश करते हुये जन्म लेना इत्यादि से मुक्त हो जाने को बतलाया है । ३१ " मिलिन्द" के समक्ष दुःख की विस्तृत व्याख्या करते हुये नागसेन कहते हैं कि "महाराज ! जन्म लेना भी दुःख है, बूढ़ा होना भी दुःख है, बीमार होना भी दुःख है, शोक करना भी दुःख है, रोना पीटना भी दुःख है, दौर्मनस्य भी दुःख है, परेशानी भी दुःख है, माता-पिता, भाई, बहन, पुत्र, स्त्री, दास का मर जाना भी दुःख है, बन्धु-बान्धवों पर आपत्ति पड़ना, रोग से पीड़ित रहना, सम्पत्ति का नाश होना, शील से गिर जाता, सिद्धान्त से गिर जाना, राजा से भय खाना, चोर का डर, शत्रुओं से डरा रहना, अकाल पड़ जाना, घर में आग लग जाना, बाढ़ की लहरों में पड़ जाना, भँवर में पड़ जाना, मगर से पकड़े जाना, घड़ियाल से पकड़े जाना, अपनी निन्दा होना, दूसरे किसी की निन्दा होना, दण्ड पाने का भय, दुर्गति हो जाने का भय, भरी सभा में घबरा जाना, जीविका चले जाने का भय, मरण भय, बेंत से पीटा जाना, चाबुक से पीटा जाना, डण्डों से पीटा जाना, हाथ काट लिया जाना, पैर काट लिया जाना, हाथ-पैर दोनों काट लिया जाना, कान काट लिया जाना, नाक काट लिया जाना, नाक-कान दोनों काट लिया जाना... आदि दुःख हैं । ३२ दुःखों की ऐसी विस्तृत व्याख्या सुनकर " मिलिन्द " कहते हैं "ठीक है भन्ते नागसेन ! आपने दुविधा को स्पष्ट कर दिया । तर्कों के सहारे आपने जो कहा, मुझे स्वीकार है" । ३३ 157 २. दुःख समुदय समुदय का अर्थ है कारण क्योंकि यह "सम" पद समागम और समवेत का वाचक है, “उ” उत्पन्न या उदित होने के अर्थ में है तथा "अय' कारण का द्योतक है । ३४ दुःख की उत्पत्ति को ही दुःख समुदय कहा जाता है । दुःख की उत्पत्ति तृष्णा के कारण होती है । ५ इन्द्रियों के जितने प्रिय-विषय या काम हैं उन विषयों के साथ सम्पर्क, उनका ख्याल तृष्णा को पैदा करता है । ३६ नागसेन " मिलिन्द" को कहते हैं कि "महाराज ! सभी संसारी जीव इन्द्रियों और विषयों के उपभोग में लगे रहते हैं उसी में आनन्द लेते हैं और उसी में डूबे रहते हैं । वे उसी की धारा में पड़े रहते हैं, बारबार जन्म लेते, बूढ़े होते, मरते, शोक करते, रोते-विलापते, दुःख, बेचैनी और परेशानी से नहीं छूटते हैं। दुःख ही दुःख में पड़े रहते हैं । ३७ ३. दुःख-निरोध ‘“नि” शब्द अभाव और "रोध' शब्द बन्धनागार प्रकट करता है अथवा दुःख के अनुत्पाद निरोध का प्रत्यय होने से दुःख-निरोध है । " धम्मपद में कहा गया है कि जिस प्रकार दृढ़मूल के बिल्कुल नष्ट न हो जाने से कटा वृक्ष फिर बढ़ जाता है उसी प्रकार तृष्णा के समूल नष्ट न होने से
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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