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________________ Vol. xxx, 2006 जयन्त भट्ट : दर्शन की साहित्यिक भूमिका 153 उदाहरण 'आगमडम्बर' को माना जा सकता है । यह शिल्प-विद्रोह वस्तुतः रचनाकार के रूप में जयन्त भट्ट के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का ही रूप है । यदि 'विजन' को साहित्य की कसौटी माना जाये तो उक्त नाटक एक 'फंतासी' की सर्जना करता है जिससे देस-काल निरपेक्ष पात्रों ने एक ही धरातल पर आकर दार्शनिक मतवादों की चर्चा की ।। इस प्रकार डॉ० वी० राघवन के निष्कर्षों को सहमति व्यक्त की जाए तो कहा जा सकता है कि जयन्त भट्ट का उनके पूरे रचनाकाल में व्यक्तित्वातरण दार्शनिक से कवि (न्यायमञ्जरी में), कवि से दार्शनिक (आगमडम्बर में) और समेकित रूप में दार्शनिक-कवि के रूप में हुआ है । संदर्भ : १. ४, १४, श्लोक न्यायमञ्जरी भाग-१ । २. मैंने मुख्य रूप से पंडित सूर्य नरायण शुक्ल द्वारा सम्पादित और जय कृष्ण दास हरिदास गुप्त, चौखम्बा संस्कृति सीरिज आफिस, वाराणसी द्वारा प्रकाशित, 'न्यायमञ्जरी' को ध्यान में रखा है। ३. प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितन्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान । ४. Thakur, Vishwaroop the Naiyayaika-Jaournal of oriental Research, Madras, Vol. 28, page-29-30. 4. V. Raghwan, Bhaja's Sringar Prakash - 1963. ६. नमः शाश्वतिकानन्दज्ञानेश्वर्यमयात्मने । संकल्पसफलब्रह्मस्तम्भारम्भाय शम्भवे ॥ ७. जयन्ति पूरजिछत्तसाधुवादपवित्रिताः । __ निदानं न्यायरत्नानामक्षपादभुनेगिरः ॥ ८. तदेकदेशलेशे तु कृतोऽयं विवृतिश्रमः । तमेव चानुगृहन्तु सन्त प्रणयवत्सलाः || ९. अविरलजलधरधाराप्रबन्धबद्धान्धकारनिवहे बहुलनिशीये सहसैव स्फुरता विधुकुतालोकेन कामिनीज्ञानमादधनेन तच्जन्मनि सतिशयत्वमवाप्यते......। न्यायमञ्जरी पृ० १२-१३. १०. सामग्रयास्त सोऽतिशयः सुवचः सन्निहिता चेतत्सामग्री सम्पन्नमेव..........न्यायमञ्जरी पृ० १३ (अनुप्रास प्रवृत्ति) फलोपजननाविभाविस्वभावत्वाख्यसामग्रीसरूपसमारोपणनिबन्धनः न्यायमञ्जरी पृ० १३ । (सामासिक प्रवृत्ति) ११. यथा हि वाह्यानि कारणनि काष्ठादीनि पाके व्याप्रियन्ते यथा च शिबिकाया उधन्तारः सर्वे शिबिकामुधच्छन्ति यथा त्रयोऽपि प्रावाण उरवां बिभ्रति तथा सर्वाराथेव पदानि वाक्यार्थमवबोधयन्ति-१ न्यायमञ्जरी १ पृ० ३६६ । १२. सरसा सदलंकाराः प्रसादमधुराः गिर। कान्तास्तातजयन्तस्य जयन्ति जगतां गुरोः ॥ कादम्बरीकथासार १-२ । १३. जानकी वल्लभ भट्टाचार्य, न्यायमञ्जरी (अंग्रेजी अनुवाद) भूमिका पृ० ३१ । १४. कुतो वा नूतनं वस्तु वयमुत्प्रेक्षित क्षमाः । वचोविन्यासवेचित्रयमात्रमत्र विचार्यताम् ॥ न्यायमञ्जरी भाग-१ १०१।
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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