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________________ Vol. xxx, 2006 पञ्चीकरणम् : एक विश्लेषण 135 हैं । इनके अतिरिक्त संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व (अग्निसंयोगेन नैमित्तिकः) और संस्कार यह साधारण गुण मिलाकर कुल ग्यारह गुण तेज के होते हैं । तेज भी परमाणु रूप नित्य तथा कार्य रूप अनित्य होता है । वायु - वायुत्वजातियोगि अरूपस्पर्शवान् वायुः (सप्तपदार्थी - शिवादित्य) । वायुत्व जाति से समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध रूप रहित और स्पर्श गुण से युक्त द्रव्य वायु है । पृथिवी, जल और तेज में रहने वाले स्पर्श से विलक्षण स्पर्श वायु का विशेष अर्थात् व्यावर्तक धर्म है । पृथिव्यादि द्रव्य दृश्य और स्पृश्य दोनों प्रकार के हैं, वायु रूप रहित अदृष्य है। वायुगत स्पर्श अदृष्ट वायु का लिंग (परिचायक) है - न च दृष्टानां स्पर्श इत्यदृष्टलिङ्गो वायुः वै. सू. २-९-१० । पृथिवी, जल, तेज में स्पर्श क्रमशः पाकज अनुष्णाशीत, शीत और उष्ण होता है । इनसे भिन्न वायु का स्पर्श अपाकज अनुष्णाशीत होता है। इसके अतिरिक्त वायु के सामान्य गुण संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, एवं (वेग) संस्कार होते हैं । यह वायु भी परमाणु रूप नित्य तथा कार्य रूप अनित्य है । आकाश - हमारी सभी सांसारिक क्रियाओं तथा सभी द्रव्य पदार्थो की स्थिति का एक मात्र आधार होने के कारण अति महत्त्वपूर्ण द्रव्य आकाश है । यह पूर्वोक्त चारों महाभूतों से अलग है । यह एक, विभु, नित्य और अखण्ड है । एक होने के कारण इसकी आकाशत्व जाति भी नहीं बनती अत: इसको लक्षित करना भी सहज नहीं है । वैशेषिक दर्शन में शब्दगुणकमाकाशम् यही इसका लक्षण है और शब्द गुण का परिशेष न्याय से एक मात्र सम्भव आश्रय होना ही इसकी सिद्धि में प्रमाण है । प्रशस्तपादभाष्य के अनुसार शब्द विशेष गुण के अतिरिक्त आकाश के संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग यह पाँच और गुण हैं। वेदान्त में स्थूल महाभूत पञ्चीकृत हैं। इनके कारण पञ्चतन्मात्र सूक्ष्म तथा अपञ्चीकृत हैं । स्थूलभूतों में गुण अभिव्यंजित होते हैं तथा सूक्ष्म तन्मात्र में यह गुण अनभिव्यंजित होते हैं यही इनका स्थूलत्व और सूक्ष्मत्व है । पञ्चीकरण का सीधा सा अर्थ है पाँचों गुणों को पाँचों भूतों में (भले ही वह गौण प्रधान भाव से हो) रहना । वेदान्त पञ्चीकरण को तो मानता है परन्तु महाभूतों में सभी गुणों को अभिव्यंजित अवस्था में नहीं मानता । आकाशादि में क्रमशः एक, दो, तीन...गुणों को ही अभिव्यंजित मानता है - तदानीमाकाशे शब्दोऽभिव्यज्यते, वायौ शब्दस्पर्शी, अग्नौ शब्दस्पर्शरूपाणि, अप्सु शब्दस्पर्शरूपरसाः, पृथिव्यां, शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाश्च । वेदान्तसार । शंकराचार्य का भी यही मन्तव्य श्रुति वाक्यों के भाष्य से स्पष्ट प्रकट होता है - तस्मादेतस्माद्ब्रह्मण आत्मस्वरूपादाकाशः संभूतः समुत्पन्नः । आकाशो नाम शब्दगुणोऽवकाशकरो मूर्तद्रव्याणाम् । तस्मादाकाशात्स्वेन स्पर्शगुणेन पूर्वेण चाकाशगुणेन शब्देन द्विगुणो वायुः । संभूत इत्यनुवर्तते । वायोश्च स्वेन रूप गुणेन पूर्वाभ्यां च त्रिगुणोऽग्निः संभूतः । अग्नेश्च स्वेन रसगुणेन पूर्वैश्च त्रिभिश्चतर्गुणा आपः संभूताः । अद्भ्यः स्वेन गन्धगुणेन पूर्वैश्च चतुर्भिः पञ्चगुणा पृथिवी संभूता।" शांकरभाष्य तैत्तिरीयोपनिषत् २-१-१ । सांख्य, वैशेषिक, न्याय भी ऐसा ही मानते हैं। न्याय दर्शन तो न महाभूतों को पञ्चीकृत मानता है और न शरीर को पाञ्चभौतिक । आकाशादि में क्रमश: एक, दो, तीन....गुणों की स्थिति अनुभव सिद्ध भी है। इसका अपलाप नहीं किया जा सकता।
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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