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M. A. DHAKY
SAMBODHI
महाकवि धनपालकृत सत्यपुरीय-श्रीमहावीर-उत्साह
॥२॥
जिणव जेण दट्ठट्ठ कम्म बलवंता मोडिय, - चउ कसाय पसरंत जेण उम्मूल वितोडियः । तिहुयण-जगडण-मयण-सरहि तणु जासु न भिज्जइ,
इयरनरहि सच्चउरि-वीरु सो किम जगडिज्जइ. ॥१॥ वरसुरहि पहरंत खंध माहणसिरि तोडद्दि, __फरसु अत्थि गब्भरु य लेवि तरुवारिहि झोडहि; ते तेरिस पाविट्ठ दुट्ठ आरुटु सुधीरह,
नयणिहि पेच्छहि जाव ताव पहरंति न वीरह. भंजेवि णु सिरिमालदेसु अनु अणहिलवाडउं,
चड्डावल्लि सोरट्ट भग्गु पुणु देउलवाडउं; सोमेसरु सो तेहि भग्गु जणमणआणंदणु, __ भग्गु न सिरि सच्चउरि वीरु सिद्धत्थह नंदणु. . ||३|| बहुएहि वि तारायणेहि रविपसरु किं भिज्जइ, __बहुएहि वि विसहरेहि मिलि वि किं गुरुडु गिलिज्जइ; बहु कुरंग आरुट्ठ करहि किरि काइ मयंदह,
पूणिहि बहुय तुरुक्क कांइ सच्चउरि-जिणिदह. ॥४॥ कसिणाणि णु चिरकालि आसि कुवि जोगनरेसरु,
उव्वसियइ सच्चउरि दिट्ठ तहि वीरु जिणेसरु; आरंभिउ आहुट्ठ रंगु चामीयर वरतणु,
वरतुरंगदो रहि निमित्तु नरवइहि चलिउ मणु. रायाएसिहि दुट्ठभडिहि जिणु जाव न नामिओं,
वद्ध सामि करिवरह खंधि रज्जुहं संदामिओं; कढुंतह तुट्टेवि रज्जु हय गय धरणीयलि,
निविडिय जिम परिचत्त रुंड पेच्छंतह परवलि.
॥६॥
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