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________________ Vol. xxVIII, 2005 प्राकृत-साहित्य में जनसामान्य की सशक्त अभिव्यक्ति 103 का प्रसंग प्राकृत के कारण सहज ही उन साधारण लोगों का अपना बन जाता होगा जो आजीविका नहीं मिलने के कारण द्यूतोपजीवी बनने पर मजबूर हो जाते थे । राजा का साला शकार नीच कुलोत्पन्न महामूर्ख पात्र है । वह अशिक्षित हैं, दम्भी है, बात करने की उसे तमीज़-नहीं है । शकारी प्राकृत, जिसकी विशेषता उलटी-पुलटी ऊटपटांग उक्तियाँ होती हैं शकार के चरित्र से सही मेल खाती है। मृच्छकटिक में शकार के अभिनय की प्राण यह शकारी ही है। इसे संस्कृत में परिवर्तित कर दीजिये शकार का शकारत्व ही समाप्त हो जायेगा । दर्शक इसके अभिनय का भरपूर आनन्द शकारी प्राकृत के कारण ही ले सकते थे । एक उदाहरण देखिये, वसन्तसेना का पीछा करते हुए कामातुर शकार कहता है - झाणज्झणन्तबहुभूषणशद्दमिश्शं, किं दोवदी विअ पलाअशि लामभीदा । एशे हलामि शहशत्ति जधा हणूमे, विश्शावशुश्श बहिणि विअं तं शुभवे ॥ मृच्छकटिक १-२५ इस प्रकार का कोई भी प्रसंग उठाकर देख लीजिये अभिनय की प्राण प्राकृत दृष्टिगत होगी । वसन्तसेना का हाथी खूटे तोड़कर महावत को मार कर उपद्रव मचाते हुए राजपथ पर उतर आया । हाथी के डर से भागती हुई सुन्दरियों के पाजेब के जोड़े खिसकने लगे, मणिजटित करघनियाँ टूट कर बिखरने लगी, इस आपस की रेलमपेल में छोटे छोटे रत्नजड़ित हाथ के कंगन टूट टूट कर गिरने लगे। विचलइ णेउरजुअलं छिज्जति अ मेहला मणिक्खइआ । वलआ अ सुंदरदरा स्अणंकुरजाल-पडिवद्धा ॥ २-१९ भट्टनारायण के वेणीसंहार में दिनभर के भयंकर युद्ध में मारे गये वीरों के शवों से युद्धभूमि पटी पड़ी है । उस दिन के युद्ध की समाप्ति के बाद रात्रि में राक्षस और राक्षसी का एक युगल भूख-प्यास बुझाने वहाँ आता है। उनके संवादों का प्राकृत में होना स्वाभाविक ही है। इस दृश्य के मञ्चन में प्राकृत के कारण जो प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है वह परिमार्जित संस्कृत के प्रयोग से नहीं किया जा सकता। राक्षस: - अले, के मं शहवेइ ? अला कहं पियामे वशागंधा । वशागंधे कीश मं शद्दावेशी ? लुलाशवपाणपाणमत्तिए लणहिण्डस्तलन्तगत्तिए । शद्दाअशि कीशमं पिए पुलिशशहश्शं हदं शुणीअदी ॥ राक्षसी - अले लुहिलप्पिआ, एदं खु मए तुह कालम्मादो पच्चग्गहदश्श कश्श विलाएशिणो शलीलावअवप्पशुदं प्पहूदवशाशिणेहचिक्कणं कोशिणं एव्व लुहिलं अग्गमेशं अ आणीदं । ता पिबाहि णम् । राक्षसः - शाहु वशागन्धे, शाहु । गहिणि । शोहणं तुए किदं । बलिअम्हि पिपाशिए जं कोशिणं लुहिलं आणीदं तं उवणेहि । वेणी० ३-३ यह पूरा प्रसंग राक्षस, राक्षसी की भूमिका में अभिनय करनेवाले अभिनेताओं को उनकी अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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