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दीनानाथ शर्मा
SAMBODHI
ने मिलकर विश्वामित्र की प्रेरणा से भरतों के राजा सुदास से परुष्णीनदी के किनारे युद्ध किये । सुदास के पुरोहित वशिष्ठ ऋषि ने इन्द्र से प्रार्थना करके सहायता मांगी । इन्द्र की कृपा से शत्रुपक्ष के दस राजा पुरु, अनु, द्रुट्टयु, तुर्वश, यक्षु पक्थ, भलानस, अलिन, विषणिन् और शिवास हार गये और परुष्णी नदी के पानी में डूबकर मर गये । इस युद्ध में राजा सुदास की सहायता तृत्सुओं ने भी की । इसी प्रकार के अनेक उद्धरण ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं।
नैरुक्तसम्प्रदाय :- यदि वेद को इतिहास से सम्बन्धित मानें तो उन्हें शाश्वत कहना बाधित होगा इसलिए नैरुक्त अलग मत प्रस्तुत करते हैं । उनके अनुसार वेदमन्त्रों में प्रकृति का रूपक वर्णन हुआ है। उसमें इतिहास या किसी घटना का वर्णन नहीं है। जैसे - इन्द्र ने वज्र से वृत्त को मारकर पानी को मुक्त किया - इस बात को यूं समझना चाहिए - पवन के कारण बादल एक दूसरे से टकराते हैं
और बिजली गिरती है चमकती है, पानी बरसता है । इस प्रकार इन्द्र वृष्टि के देवता हैं । नैरुक्त परम्परा में वेदमन्त्रों में प्रयुक्त शब्दों का अर्थघटन करने की विधि बतायी गयी है और यह सिद्धान्त स्थापित किया गया है कि प्रत्येक शब्द के निर्माण में उसके अर्थ से सम्बन्धित एक क्रिया रही होती है जिससे उस शब्द के अर्थ का निर्धारण होता है हालांकि वैदिकमन्त्रों को निर्वचन पद्धति से सिद्ध करने की प्रक्रिया आत्यन्तिक हो गयी।
___ याज्ञिक : निरुक्त के सातवें आध्याय से दैवतकाण्ड की व्याख्या शुरू होती है। वहीं याज्ञिक और पूर्व याज्ञिक के नाम से कुछ मत उद्धृत हैं । देवताओं की संख्या एक है या तीन है या अनेक है - इस विषय की चर्चा करते समय यास्क ने याज्ञिकों के मत का उद्धरण दिया है -
अपि वा पृथक् स्व स्युः पृथग् हि स्तुतयो भवन्ति । तथा अभिधानानि (नि०७-२) याज्ञिकों का मत है कि जितने नाम और विशेषण हैं उतने देवता हैं अर्थात् अनेक देवता हैं, जैसे-अग्नि, जातवेदस्, वैश्वानरये तीन अलग-२ देवता हैं। इसी प्रकार इन्द्र, वृत्रघ्न, पुरभिद् आदि भी अलग-२ देवता हैं। बाद में विकसित पूर्वमीमांसा में कहा गया है कि-'आम्नायस्य क्रियार्थत्वाद् आनार्थक्यमतदर्थानाम्' अर्थात्-"वैदिक मन्त्र यज्ञक्रिया के लिए ही होते हैं इसलिए जो मंत्र यज्ञक्रिया सम्बन्धी नहीं हैं वे अनर्थक हैं।" .. परिव्राजक या आत्मविद सम्प्रदाय : इस नाम का भी एक सम्प्रदाय निरुक्त में उल्लिखित हैं। ऐसे संन्यासियों के अनुसार वेदमन्त्रों में एक ही परमात्म की स्तुति हुई है। वे एकेश्वरवादी हैं । ऋग्वेद में एक देवतावादी आवधारण भी है जिसको यास्क ने रेखांकित किया है
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वानामाहुः ॥ (नि० ७-४) "इममेवाग्नि महान्तमात्मानमेकमात्मात्मानं बहुधा मेधाविनो वदन्ति ।" ऋग्वेद सं० १-१६४-४६
अर्थात् बुद्धिमान लोग एक ही महान् देवतात्मकी अनेक रूप में स्तुति करते हैं। परिव्राजक ऐसे मन्त्रों का आध्यात्मिक अर्थघटन करने को प्रेरित हुए और उनका सम्प्रदाय चल पड़ा । "बहुप्रजाः