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________________ 142 डा० मुकुल राज महेता SAMBODHI गतिशील जीवों में होती है; और वह लगातार होती रहती है। दूसरी तप आदि द्वारा की जानेवाली निर्जरा व्रतयुक्त जीवों के होती है।११ चन्द्रप्रभ चरित में कहा गया है कि कर्मक्षपणवाली निर्जरा दो प्रकार की होती है - कालकृत और उपक्रम कृत । नरक आदि जीवों के कर्म-मुक्ति से जो निर्जरा होती है, वह "काल कृत" अथवा "कालजा" निर्जरा है और जो निर्जरा तप से होती है, वह “उपक्रम कृत" निर्जरा कहलाती है।१२ तत्त्वार्थसार में स्पष्ट किया गया है – “कर्मों के फल देकर झड़ने से जो निर्जरा होती है, वह 'विपाकजा' निर्जरा है और जो अनुदीर्ण कर्मों को तप की शक्ति से उदयावलि में लाकर वेदन करने से जो निर्जरा होती है वह ‘अविपाकजा' निर्जरा है ।१३ अकाम निर्जरा बिना उपाय, बिना चेष्टा और बिना प्रयत्न के ही होती है। वह किसी की इच्छा से नहीं फलीभूत होती, बल्कि स्वयं उत्पन्न होती है। स्वकाल प्राप्त विपाकजा प्रभृति निर्जरा के जो विशेषण हैं वे स्वयं ही फलीभूत होते हैं। यह सभी जीवों के होती है। इससे सभी चिन्तक एकमत है किन्तु सकाम निर्जरा के सम्बन्ध में मतभेद है। हेमचन्द्र सूरि का मानना है कि सकाम निर्जरा यामियों-संयमियों के ही होती है। अर्थात् जो यम संयम का पालन करते हैं और अकाम निर्जरा दूसरे प्राणियों के होती है ।१४ स्वामी कार्तिकेय का मानना है कि प्रथम निर्जरा चार गतियों के जीवों में होती है और दूसरी व्रतियों के ।१५ पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री का मानना है कि यथाकाल निर्जरा सभी संसारी जीवों के और हर समय हुआ करती है, क्योंकि बन्धनग्रस्त कर्म अपने समय आने पर फल देकर नष्ट होते ही रहते हैं। इसलिए इसे निर्जरा तत्त्व में नहीं समझना चाहिए । जो निर्जरा तप के द्वारा होती है, वह निर्जरा तत्त्व है और इसीलिए मोक्ष का कारण है । इस प्रकार दोनों के हेतु और फल में अन्तर है ।१६ (उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आत्मशुद्धि की दृष्टि से जो तप आदि की साधना की जाती है, उससे सकाम निर्जरा होती है। जिस प्रकार गीले कपड़े को धूप में फैलाकर डालने से शीघ्र सूख जाता है तथा जब उसी कपड़े को अच्छी तरह से फैलाया न गया हो, तो उसे सूखने में देर लगती है। इसी प्रकार कर्म निर्जरा के लिए जब विधिपूर्वक व विवेकपूर्वक तप आदि की साधना की जाती है तब वह सकाम निर्जरा होती है। बिना ज्ञान एवं संयम से जो तप आदि क्रियायें की जाती हैं, तो उनसे होनेवाली तथा कर्म का स्थितिपाक होने पर उनकी जो निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा होती है। इसलिए कहा गया है कि – 'यश, कीर्ति, सुख एवं परलोक में वैभव आदि पाने के लिए तपस्या, ध्यान, ज्ञान आदि नहीं करना चाहिए, किन्तु एकान्त निर्जरा के लिए तप करना चाहिए ।१७) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520775
Book TitleSambodhi 2002 Vol 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
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