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________________ जैन दर्शन में निर्जरा तत्त्व जैन दर्शन के अनुसार संवर के बाद “निर्जरा” तत्त्व का स्थान होता है। संवर नवीन कर्मों के आम्रव को रोकता है तो निर्जरा द्वारा पहले से आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मों का क्षय होता है, अर्थात् कर्मों की क्षयप्रक्रिया का नाम निर्जरा है । जिस प्रकार में तालाब में पानी के प्रवेश द्वार को बन्द कर देने पर सूर्य की गरमी, धूप आदि से तालाब का पानी धीरे-धीरे सूख जाता है उसी प्रकार कर्मों के आस्रव संवर द्वारा रोक देने पर तप आदि कारणों से आत्मा के साथ पहले से बँधे हुए कर्म धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ जाते हैं । इस दृष्टि से निर्जरा का अर्थ है, कर्म वर्गणा का आंशिक रूप से छूटना । द्वादशानुप्रेक्षा में कहा गया है तत्त्वार्थ भाष्य में कहा गया है निर्जरा है । ३ डा० मुकुल राज महेता Jain Education International बँधे कर्मों के प्रदेश - पिण्ड के गलने का नाम निर्जरा है । २ हुए ― — - परिपाक से अथवा तप के द्वारा कर्मों का आत्मा से अलग होना निर्जरा की अवस्था प्राप्त करने के लिए योग एवं निदिध्यासन अत्यन्त आवश्यक माना गया है। राग, द्वेष तथा मोह के कारण 'आम्रव' होता है। संवर तथा निर्जरा की प्रक्रिया के द्वारा आम्रव का नाश होता है । इस प्रकार कर्म पुद्गलों से मुक्त होने पर जीव स्वयं को सर्वज्ञ तथा सर्वद्रष्टा समझकर मुक्ति का अनुभव करने लगता है । जैन दर्शन के अनुसार जीव की यह अवस्था भाव मोक्ष अथवा जीवन-मुक्त अवस्था कहलाती है । ४ पंचास्तिकाय में निर्जरा की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि शुभाशुभ परिणाम निरोध रूप-संवर और शुद्धोपयोग रूप योगों से संयुक्त ऐसा जो भेद विज्ञानी जीव अनेक प्रकार के अन्तरंग - बहिरंग तपों द्वारा उपाय करता है, वह निश्चय ही अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है । 4 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520775
Book TitleSambodhi 2002 Vol 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
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