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Vol. XXIV, 2001 श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों के अन्तर्गत प्रकीर्णकों... ३. 'महाप.' के पद्य नं. ३ का पाठ इस प्रकार है
जं किंचि वि दुच्चरियं, तमहं निंदामि सव्वभावेणं ।
सामाइयं च तिविहं, करेमि सव्वं निरागारं ॥ 'नियमसार' के पद्य नं. १०३ का पाठ
जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोसरे ।
सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ॥ 'मूलाचार' के पद्य नं. ३९ का पाठ
जं किंचि मे दुच्चरियं, सव्वं तिविहेण वोसरे ।
सामाइयं च तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ॥ छन्द की दृष्टि से विश्लेषण
'महाप.' के पद्य में ८+११ और ८+९ वर्ण हैं। अनुष्टुप् की दृष्टि से (मात्राओं का नियमन) भी यहाँ त्रुटिपूर्ण है। मात्राछन्द की दृष्टि से यह गाथाछन्द है। इसमें १२+१८ और १२+१५ मात्राएँ हैं और सभी मात्रा-गण सही हैं। - 'नियमसार' के पद्य में ८+९ और ८+९ वर्ण हैं परंतु अनुष्टप् की दृष्टि से छन्दोभंग हो रहा है। मात्राओं की दृष्टि से १४+१४ और १२+१५ मात्राएँ हैं और पहले पाद का दूसरा और तीसरा मात्रा-गण भी गलत है, अतः यह गाथाछन्द में गलत ठहरता है।
'मूलाचार' के पद्य में ८+९ और ८+९ वर्ण हैं परंतु अनुष्टुप् छन्द की दृष्टि से मात्राओं का नियमन गलत है। उसी प्रकार मात्राओं की दृष्टि से इसमें १३+१४ और १२+१५ मात्राएँ हैं। इसमें पहले पाद का द्वितीय मात्रागण भी गलत है । अतः ‘महाप.' का पद्य ही छन्द की दृष्टि से सही है।
भाषा की दृष्टि से विश्लेषण'महाप.' का 'निरागारं' पाठ अन्य दो ग्रंथों के 'णिरायारं' पाठ से प्राचीन है।
अर्थ की दृष्टि से 'दुच्चरित्तं' तो हो सकता है लेकिन मेरा अपना ('नियमसार' के अनुसार) क्या होगा ? यही कि जिसे त्याग देना पड़े। इसी प्रकार ('मूलाचार के अनुसार) जो 'दुच्चरियं' पाठ बन गया है और जो त्यागना है उसकी तो निंदा ही की जा सकती है। अतः अर्थ की दृष्टि से भी ‘महाप.' के पद्य का पाठ समीचीन ठहरता है। इस प्रकार ‘महाप.' के पद्य का पाठ मूलतः प्राचीन प्रतीत होता है।
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