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Vol. XVIII, '92-93 Sanskrit Chāyā :
भ्रमर सुर-तरु-मञ्जरीणाम् परिमलम् गृहीत्वा हताश ।
हृदयम् स्फुटित्वा कथम् न मृतः भ्रममाणः पलाशे ॥ 7. p. 369, verse 98.
उज्जयु कज्जारंभियउनहि किं करइ धन्नउ पगु वि न देइ असड्ढलु संभवइ । सूरह सत्त तुरंम गयणि भमंताह
विन्मह कोडिगंइंदह एउ वियदिताह ॥ . The metre is Rāsāvalaya. .. The Restored Text :
उज्जमु कज्जारमि अपुन्नह किं करइ धन्नउ पउ-वि न देह असड्ढलु संभवइ । सूरह सत्त-तुरयहिं (ण) गयणि भमंताहिं
लब्भइ कोडि गइंदहिं पउ वि ण दिताहि ॥ Sanskrit Chāyā :
उद्यमः कार्यारम्भेन अपुण्यस्य किं करोति धन्यः पदम् अपि न ददाति असाधारणम् संभवति । सूर्यस्य सप्त-तुरगैः न गगने भ्रमद्भिः
लभ्यते कोटिः गजेन्द्रैः पदम् अपि न ददद्भिः ॥ 8. p. 383, verse 1.
कल्लइ बोरई विक्किणइ, अज्ज न जाणइ खक्ख ।
पडुयइ अडविहिं करि, मु घरु न सहउं एह अणक्ख ॥ The same verse occurs in the Manorama-kahā (p. 40, v. 213). There we have 370 and सुघरु
The metre is Dohā. The Restored Text :
कल्लइ बोरई विक्किणइ, अज्जु न जाणइ खक्ख ॥
पडिवउ अडविहिं करिसु घरु, न सहउं एह अणक्ख ॥ Sanskrit Chāyā
कल्येः बदराणि विक्रिणाति, अद्य न जानाति खक्खा ।।
पुनरपि अटव्याम् करिष्यामि गृहम्, न सहे एतद् मनोदुःखम् ॥ 9. p. 385, verses 1-3
This passage occurs also in the Manoramā-kahā (p. 41, no. 218). The metre is Vadanaka. At both places the text is partly defective. The text is to be restored as follows: