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________________ संयुक्त के समीकरण के बदले उनमें से एक व्यजन का अनुस्वार में बदलने की प्रवृत्ति बाद की मानी जाती है । (मणस्सिल। → मण सिला). ... .... 8 सूत्र न. 8.2.17 में क्ष = च्छ समझाया गया है । वृत्ति में कहा गया है आर्षे इक्खू खीर', सारिक्खमित्याद्यपि दृश्यन्ते । अथात् क्ष का कूख भी होता है । अशोक के शिलालेखों में यह पूर्वी क्षेत्र की प्रवृत्ति है । अन्य क्षेत्रों में च्छ मिलता है । बादमें क्ष कां सभी जगह च्छ और क्ख एक साथ मिलता है (मेहण्डले)। ... 9 सूत्र न 8.1.57 की वृत्ति में 'आर्षे पुरेकम्म' का उदाहरण दिया गया है। यह अस् = ए कहा गया हैं आर्षे यानि पुरः = पुरे है। इसी तरह ही अः = ए की प्रवृत्ति पूर्वी भारत की रही है । अशोक के शिलालेखों में प्रथमा ए. व. के अलावा षष्ठी एवं पंचमी ए. व. के व्यजनांत शब्दों में जहाँ आकारान्त के बाद पर अन्त में विसर्ग आता है वहाँ पर-ए भी मिलता है । इसिभासियाइ' में नामते (नामत:) प्रयोग मिलता है (अध्याय 22 और 31) 10 पु. प्र. ए. व की विभक्ति-ए (सूत्र 8.4.287 की वृति के अनुसार ) अर्धमागधी भाषा की यह प्रमुख लाक्षणिकता है जो पूर्वी भारत की भाषाकीय विशेषता रही है । 11 ब्र धातु के रूप :अब्बवी (अब्रवीत्) भूतकाल के -सी, -ही, -हीअ प्रत्यय देते समय वृत्ति में आर्ष के लिए 'अब्बवी' रूप दिया गया हैं-आर्षे दविन्दो इणमब्बवी 8.3.162 की वृत्ति) वत. काल के बेमि (ब्रवीमि ) का उदाहरण स्वराणां स्वराः ( 8.4.238) के सूत्र की वृत्ति में दिया गया है (आर्षे बेमि )। ये दोनों रूप अति प्राचीन हैं और प्राचीनतम प्राकृत साहित्य में ही प्रायः मिलते हैं । अवांचीन प्राकृत में ऐसे रूप नहीं मिलेगे । ( देखिए पिशल और गाइगर) प्राचीन पालि में भी ऐसे ही प्रयोग मिलते हैं । 12 सूत्र न 8.1 206 में (कृदन्त प्रत्यय ) -त सा -ड होना समझाते समय वृत्ति में कहा गया है कि आर्षे कृत का कड हो जाता है, दुक्कड, सुक'; आहड', अवह । यह प्रवृत्ति भी अशोक कालीन शिलालेखों में मिलती है-कृत = कट । इसी ट . का बादमें घोष होसर ड, बन गया है । - 13 संबंधक भूतकृदन्त के उदाहरण देते समय सूत्र न. 8.2.146 की वृत्ति में कहा गया है.. कट्टुइति तु आर्षे । यह विशेषता अशोक कालीन पूर्वी क्षेत्र की है। अन्य क्षेत्रो में 'कत्त' मिलता है। __ इन सभी विशेषताओं को सूत्रबद्ध करके क्या अन्य प्राकृतों की तरह उन्हें एक जगह व्यवस्थित नहीं रखा जा सकता था जब कि अन्य प्राकृतों की एकल दोकल विशेषताएँ भी सवबद्ध करके समझायी गयी हैं । उदाहरणार्थ :
SR No.520765
Book TitleSambodhi 1988 Vol 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1988
Total Pages222
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
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