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पद निरर्थक हो जाता है । पं० सुखलालजी का कथन हैं कि " श्वेताम्बर आचार्यों में हेमचन्द्र की खास विशेषता यह है कि उन्होंने गृहीतग्राही और ग्रहीष्यमाणग्राही में समत्व दिखाकर सभी धारावाहिक ज्ञाना में प्रमाण्य का जो समर्थन किया है वह खास मार्के का I यही कारण है हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद की उभावना नहीं की है ।
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वस्तुतः हेमचन्द्र के प्रमाण-लक्षण की यह अवधारणा हमें पाश्चात्य तर्कशास्त्र के सत्य के संवादिता सिद्धान्त का स्मरण करा देती हैं । पाश्चात्य तर्कशास्त्र में सत्यता निर्धारण के तीन सिद्धान्त है -१ संवादिता सिद्धान्त २ संगति सिद्धान्त और ३ उपयोगितावादी या अर्थक्रियावादी सिद्धान्त । उपर्युक्त तीन सिद्धान्तो में हेमचन्द्र का सिद्धान्त अपने प्रमाण लक्षण में अविसंवादित्व और अपूर्वता के लक्षण नहीं देने से तथा प्रमाण केा सम्यगर्थ निर्णय के रूप में परिभाषित करने के कारण सत्य के संवादिता सिद्धान्त के निकट है । इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण लक्षण निरूपण में अपने पूर्वाचार्यो के मतों को समाहित करते हुए भी एक विशेषता प्रदान की है ।
१६. वही भाषटिप्पणानि पृ० १४