SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भवलोकन 73 तिङ् :- 'लक्ष्य' ( 111-4-77, अत्र अकार उच्चारणार्थः । न इत्। ल इति स्थानिनिर्देशः सकाराः दश वर्तमानादिकालविशेषयात पदतिः। चस्वारी शिराः | "तिप्तसूशि.” (III-4-478) इत्यादय: लादेश ।" ऐसा लिखा है । परन्तु "लकारा: दश " के पूर्व यह बताना अनिवार्य भावे चार्म ([II-469) " सूत्र से 'ल' कार कर्तरि / कर्मणि भावे अर्थ में विवक्षानुसार प्रयुक्त होते है । इन ताओं और कुछ गुण दोष को द्वितीय संस्करण में सम्पादकभी दुर करे ऐसी आशा है। "प्रत्ययकोश" के कर्ता श्री गुरु रामजी के प्रति सभी पाणिनीय अकृता से अवनत हैं । और सम्पादकश्री का कार्य भी निःसंदेह अभिनन्दनीय है । डॉ. बसन्तकुमार म. मह भारतीय शृंगार- डो. कमल गिरि, मोतीलाल बनारसीदास - दिल्ली- १९८७, पन्ने ३२८, मूल्य १० रुपये इस शोध प्रबन्ध की उपयोगिता के बारे में डो. कमल गिरिने जो बाते प्राक्कथन में लिखी है, उनको देखकर इनका किस हद तक सही है यह देखना ठीक होगा । "शुगार को यदि संस्कृतिका दण्ड कहा जाय तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी क्योंकि मानव संस्कृति के अभ्युदय के साथ ही शृंगार का भी उदय हुआ । व्यक्तिगत शृंगार न केवल संस्कृति के विविध पक्षों को ही निर्दिष्ट करता है अपितु उसे प्रमानित भी करता है। काल एवं स्थान विशेष के सन्दर्भ में शगार के अध्ययन द्वारा तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थितियों आदि का मी साउन सम्भव होता है " (g. 1) "राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्राचीन भारतीय शृंगार पर अब तक समुचित अध्ययन के समय की दृष्टि से इस प्रयास का हिन्दी जगत में विशेष रूपसे स्वागत होगा इस विश्वास के साथ...।" इन देशों को सिद्ध करने के लिये इस शोध में भारतीय शृंगार के चार तस्व प्रसाधन, वस्त्र, केशविन्यास एव आभूषणका अभ्यास करना लेखिकाने उचित समझा है और इन चार व्यापक तत्वों के अभ्यास में प्रायः सबकुछ भा जाता है। इन चार के विकास, कान्तिका भास करने के लिये लेखकाने भारतीय इतिहास हम युगों में विभाजित किया है, यह भी उचित सा लगता है सैन्धव सभ्यता, वैदिक काल, महाकाव्यकाल, प्राइ मौर्यकाळ, मौर्यकाल, शुंगकाल, कुषाणकाल तथा गुप्त एवं गुणोत्तर काल । संस्कृति की उन्को यह विभाजन किया गया है कि चर्चा फल एवं गारकी दृष्टि से करना जरुरी था। इसी चनायें की थी। श शु मस्ताना चार अध्यायों में विभाजित शो में करके चारों अंगों का विस्तीर्ण निरूपण प्रमाणों के साथ किया गया है । हम कहे कि इन चार अध्यायों में इन चार के बारे में प्रायः पूर्ण सामग्री एवं तथ्य मिल जाते है तो वह उचित होगा अन है और तथाकी प्राप्ति में लेखिका भी भारी कसौटी हुई है इसमें शंका नहीं। हाँ, ऐसा जहर आता है कि यह निबन्ध वर्णनामक एवं निरूपणात्मक विशेष के जीवन
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy