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________________ श्रीजिनकी र्तिसूरिकृत श्रीवीरस्तव ( षड्भाषायुक्त ) - ( सावचूरि) ||६० || श्रीणां प्रोणातु दानैः प्रथम जिनपतिनाभिभू मैर्भुवः स्वः सेवावा किनाकिप्रभुमुकुटतटस्पृष्टपादारविंद: । भूतो भव भवत्वा रणुरपि वा भावराशिः समस्तो ज्ञाने तुल्यका प्रतिफलति यथा स्वस्वरूपव्यवस्थम् ॥ | १ | संस्कृतम् जेण भारह खित्तिझत्तिवविअं सद्धम्म अंतया 8 एगेणावि तहा पसंत हिअर सो पुंडरी कउ । जो अडावयपसंतिणू पत्तो परं हिं देवाणं पढमं अव्ववस भत्ती वंदामि तं ||२|| प्राकृतम् ॥ 1. सेवा वाहिकिनाकि A 2 मुकट c 3 स्पष्ट c 4 पादारविंदा: B 5 भाषा B भवन्वा C. 6. AB Omit . बीयं BC 8 पुंडरीक ० 9. सठि C. o वरि पर्छ || भू भुवः स्वः कर्मता माया नान्निः प्रतिबिंबतिः स्वस्वरूप - orerrarमेr || परानिवृत्ति सिद्धिमरमसमाधि 12 व 13 | भारत क्षेत्रे धर्मवीजवापे स्वतंत्र कर्तृत्वात् तथा'' पकत्वाते तथा एकत्वात् । 'डरीकप्रशांतकरणात् ' ' अष्टापद पृष्टिसमारोहे परमनिवृतिप्रापणाथूर ar | पूर्ववृषभत्यम् ॥२ 8 0 10 माय B 11 नान्नि B 12 समाधि B 13 व B 14 वारत B 15 तथा B. 16 B omits. 17 प्रणास्पद E 18 प्रापणा B. 19 वा v. 20 वृषभाव B. ears (भाषाटीका) || अर्ह लक्ष्मीने दानो करी प्रथम जिनपति नाभिराजानो पुत्र श्री ऋषमदेव पातालमा स्वर्गलोकप्रमें एतले त्रिलेोकना जीवने, प्रीतिकारी थाओं । ते प्रथम जिनपति केहवा छे' | सेवाना बाकी कहेतां रसिया रहवा जे नाकिप्रभु इंद्र तेहोना मुकुट सुगना अग्रभाग तेहमें विषे प्रतिबिंबित हे चरणकमल बेहना पहवा भतीत पहवा
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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