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________________ ३० गौरी मुकर्जी अपस्थापना करते हैं । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि साध्य प्रसिद्धि तो हो ही गयी, पुनः महाविद्या अनुमान का क्या प्रयोजन ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि सामान्य रीति से साध्य की प्रसिद्धि जो नहीं मानना चाहते या वक्र रीति ही जिन्हे (नैयायिको को) प्रिय हो उनके लिए महाविद्या अनुमान है जो उन्हें बलात् अवे धत्व की प्रसिद्धि स्वीकार करवाती है । महाविद्या अनुमान का स्वरूप है अब घटः एतद्घटान्यत्वे-सति वेधत्वानधिकरणान्यः पदार्थ वात् , पटवत् अर्थात् “यह घट" पक्ष "इस घट के अन्यत्व से युक्त बाले वधत्व के अनधिकरण से अन्य या भिन्न है".-साध्य " क्योंकि यह पदार्थ है"--हेतु, “पट की तरह" -उदाहरण । सामान्यतः सभी अनुमानों में दृष्टान्त था पक्ष में साध्य एवं हेतु का समन्वय एक तरह से ही होता है, जैसे पर्वत बहिमान हैं क्योंकि धूमवत्व है, इस प्रसिद्ध स्थल में दृष्टान्त महानस में संयोग सम्बन्ध से धूम तथा बहि दोनों रहते हैं, उसी प्रकार पर्वत (पक्ष) में संयोग सम्बन्ध से धूम तथा बह्नि दोनों रहते हैं, उसी प्रकार पर्वत (पक्ष) में भी संयोग से धूम के रहने के कारण बहि की सिद्धि होती हैं। किन्तु महाविद्या अनुमान में दृष्टान्त पट होने से उसमें वेद्यत्व रहता हैं क्योंकि वेद्यत्व नैयायिकों के अनुसार केवलान्वयी है। किन्तु साध्य है, घट के अन्यत्व (घट के अतिरिक्त सभी पदार्थ) में रहने वाले वेद्यस्व के अनधिकरण का भेद, इस घट से अन्यत्व विशिष्ट में रहने वाला वेद्यत्व, इस घट से अन्य में रहेगा और उसका अनधिकरण होगा यही घट , अनधिकरण से भिन्न होगा पट आदि या घर से भिन्न सभी पदार्थ | अतः पट में साध्य की प्रसिद्धि इसलिए होती हैं, क्योंकि उसमें पक्ष (इस घट) का मेद है। परन्तु पक्ष में पक्ष का भेद न रहने से (क्योंकि वह घट, उस घट से अन्य तो हो नहीं सकता) यहाँ साध्य का समन्वय दृष्टान्त की रीति से नहीं किया जा सकता । अतः पक्ष में साध्य का समन्वय करने के लिए हमें पक्ष से भिन्न कोई वेधत्व का अनधिकरण बाध्य होकर मानना होगा जो इस घट के अन्यत्व में रहने वाले वेद्यत्य का अनधिकरण हो । इस प्रकार इस काल्पनिक सत्ता (जिसमें इस घट से अन्यत्व भी है और उस अन्यत्वविशिष्ट में रहने वाले वेद्यत्व का अनधिकरणत्व भी है) से “यह घट" रूपी पक्ष की भिन्नता भी हो जायेगी । ऐसी स्थिति में पक्ष में साध्य का समन्वय अनायास हो जायेगा । अत: महाविद्या अनुमान के द्वारा यकिंचित पदार्थ की सिद्धि के उपरान्त ही पक्ष में साध्य की सिविध हो पाई । अतः वह यत्किंचित् पदार्थ वेद्यस्व का अनधिकरण होने से अवेद्यत्व का अधिकरण हो ही जायेगा या अवेद्यत्व की उसमें प्रसिद्धि बलात् हो ही जायेगी और यह कहना उचित है कि इसी उद्देश्य से ही महाविद्या अनुमान की उपस्थापना की गयी थी। महाविद्या अनुमान को परीक्षण साध्य "एतद्घटान्यत्वेसति वेद्यस्वानाधिकरणान्यः" को लेकर यह प्रश्न उठ सकता है कि इतने विस्तृत साध्य का क्या प्रयोजन ? क्यों न मात्र "वेद्यस्वानाधिकरणान्यः" से ही कार्य सम्पन्न कर लिया जाय । इसके उत्तर में यह कहना होगा कि मात्र वेद्यस्यानाधिकरणान्या" साध्य मानने से अप्रसिद्ध विशेषणता आ जायेगी क्योंकि नैयायिक सभी वस्तुओं को वद्य मानते हैं अत: अनमान के पूर्व वेद्यत्व का अधिकरण प्रसिद्ध नहीं हो सकता । फलत: “घटान्यत्वे सति " यह विशेषण दिया है । पुनः “घटान्यव" के साथ " एतद" विशेषण को लेकर भापत्ति हो सकती है । लेकिन यह आपत्ति निर्मूल है क्योकि “ एतद् " विशेषण न देने पर पक्ष
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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