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________________ चित्सुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा ग्रन्थकार अज्ञानादि में अवेद्यता को स्वीकार करते हुए उनमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता का का यह कहकर करते हैं कि अज्ञानादि साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म में अभ्यस्त होने के कारण उनमें अपरोक्षता की प्रतीति तो होती है किन्तु अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता नहीं मानी जा सकती मा शक्ति में रजत का भान अध्यास के कारण होने से साक्षात् दृश्यमान शक्तिवती रजत में अपरोक्षता होते हुए भी उसमें वास्तविक रजत का अभाव रहता है जिस कारण उसमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। सिद्धान्तपक्ष के उपयुक्त कथन से पूर्वपक्षी पूर्णरूपेण सन्तुष्ट न हो पाने के कारण और "अवेद्यत्व" की सार्थकता को समझने के लिए पुनः शंका करते हैं। उनका कहना है कि यदि अज्ञान ब्रह्म में या रजत शुक्ति में अध्यस्त होने के कारण उनमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता का अभाव रहता है तो घट भी ब्रह्म में अध्यस्त होने के कारण उसमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता नहीं रहती और उसकी व्यावृत्ति भी हो ही जाती है क्योंकि अन्ततोगत्वा ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता) ऐसी स्थिति में “अवेद्य " पद की क्या चरितार्थता है ? इस पर सिद्धान्ती का कहना है कि घटादि प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होने के कारण व्यवहार दशा में उसमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता रहती है अतः उसकी व्यावृत्ति के लिए ही अवेद्यस्य पद का प्रयोग होता है । परन्तु अज्ञानादि में प्रत्यक्षादि प्रमाण का भी अभाव रहता है जिस कारण अपरेक्षता पद से उसकी व्यावृत्ति होती है । इस पर पूर्वपक्षी पुनः शंका करता है कि यदि अवेद्यता एवं अपरोक्षता पदों से क्रमशः घयादि व अज्ञानी का व्यावर्तन होता है तो अवेद्यस्वे सति अपरोक्षत्वम् मात्र ही स्वप्रकाश का लक्षण क्यों नहीं माना जाता ? क्यों व्यर्थ में " व्यवहार की योग्यता" का प्रयोग किया जाता है ? इस शंका के उत्तर में यह कहा गया कि अपरोक्ष से आशय होता है अपरोक्ष ज्ञान का विषय अतः यदि स्वप्रकाश को अपरोक्ष मान लिया जाय तो वह अपरोक्ष ज्ञान का विषय हो जाने से वेद्य हो. जायेगा जो असंभव है । स्वप्रकाश 'ब्रह्म) की अपरोक्षता अपरोक्ष व्यवहार का योग्य होने से है, न कि अपरोक्ष ज्ञान का या व्यवहार का विषय होने से । इसके अनन्तर पूर्वपक्षी की "स्वप्रकाश के लक्षण प्रसंग में अन्तिम शंका यह रह जाती है कि वह स्वप्रकाश जो अवेद्य है, उसमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता कैसे मानी जा सकती है ? इसका समाधान देने के उद्देश्य से ही वादी, प्रतिवादी से यह पूछते हैं कि उनका उपर्युक्त तर्क किस प्रमाण को आधार बनाकर दिया गया है। क्या इसे अर्थापत्ति माना जा सकता है या अनुमान ! अर्थापत्ति और अनुमान, दोनों में से किसी को भी मानने से समस्या आती है । अर्थापत्ति में देवदत्त के मोटे होने से और दिन में न खाते हुए पाये जाने से उसके रात में भोजन की पुष्टि होती है२7 | वैसे ही वेद्यस्व के अभाव अवेद्यत्व से अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता का अभाव नहीं माना जा सकता क्योंकि वेद्यस्व और अपरोक्ष व्यवहार योग्यता ये नैयाथिकों के अनुसार केवलान्वयी है, इनका व्यतिरेक मान्य ही नहीं है। अत: अवेद्यत्व व अपरोक्ष व्यवहार योग्यताभाव का न्याय के यहाँ अप्रसिद्धि होने से पूर्वपक्ष के रूप में नैयायिक द्वारा दिया गया तर्फ ग्रहण करने योग्य नहीं है।
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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