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पद्मसुन्दरस्ररिविरचित
इति प्रबुद्धोऽपि जिनो विज्ञप्तोऽथ बिडौजसा । विजहार महीपीठे धर्ममार्ग प्रवर्त्तयन् ॥ ४१॥ परार्द्धयमा तिहार्यद्विभूषितः सुरकोटिभिः । सेव्यमानः स भगवान् विजहार वसुन्धराम् ॥ ४२ ॥ अष्टौ गणधरास्तस्याभवँल्लब्धिविभूषिताः । सर्वपूर्वधराश्चासन् सार्द्धत्रिशतसम्मिताः ॥४३॥ अवधिज्ञानिनस्तस्य चतुर्दशशतप्रमाः । सहस्रं केवलालोका एकादशशतप्रमाः ||४४॥ वैक्रियर्द्धियुतास्तस्य सार्द्धसप्तशतप्रमाः । समन:पर्ययास्तस्य तथाऽनुत्तरगामिनः || ४५ || द्वादशैव शतान्यासन् षट्शती वादिनामपि । मुनयस्त्वार्यदत्ताद्याः सहस्राणि तु षोडश || ४६।। आर्थिकाः पुष्पचूलाया अष्टत्रिंशत् सहस्रमाः । लक्षमेकं चतुःषष्टिसहस्राण्यास्तिका विभोः ॥४७॥ लक्षत्रयं च सप्तविंशतिसहस्रसंयुतम् । श्रावस्तस्य सद्धर्मं दिशतः सर्वतोऽभवन् ॥४८॥ एवं निजगणैर्युक्तो भगवान् प्रत्यबूबुधत् । भव्यपद्माकरान् धर्मे केवलज्ञानभास्करः ॥४९॥
( ४१ ) प्रबुद्ध होने पर भी इन्द्र के द्वारा इस प्रकार स्तुति किए हुए जिनदेव ने महापीठ पर धर्ममार्ग का प्रवर्तन करते हुए विहार किया । (४२) परार्द्ध प्रतिहार्य समृद्धि से भूषित वह भगवान जिनदेव पृथ्वी पर विहार करने लगे । ( ४३ - ४८ ) सर्वत्र धर्म को फैलाने वाले उन भगवान के आठ गणधर थे जो लब्धियां से विभूषित थे, तीन सौ पचास सब पूर्वो के जानकार पूर्वधर थे चौदह सौ अवधिज्ञानी थे; एक हजार केवलज्ञानी थे, ग्यारह सो वैयिलब्धिवाले थे, सातसो पचास मनःपर्यायज्ञानी थे, बारह सौ अनुत्तरगामी थे, छः सो वादी थे, सोलहहजार आर्यदत्त आदि मुनि थे; अड़तीसहजार पुष्पचूला आदि आर्यिकायें थीं, एक लाख चौसठ हजार आस्तिक श्रावक थे और तीन लाख सत्ताइसहजार श्राविकायें थीं । (४९) इस प्रकार अपने गणों से युक्त केवलज्ञान के कारण भास्कररूप भगवान ने धर्म में भव्यजनोंरूपी कमलों को प्रबुद्ध किया ।
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