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सप्तमः सर्गः
अथोदयाद्रिमूर्धस्थमिव मार्तण्डमण्डलम् । मणिरत्नपराद्धर्थ वासीनं हरिविष्टरे ॥१॥ चलच्चामरसंवीज्यमानदेहं जिनेश्वरम् । अशोकतरुबुध्नस्थं छत्रत्रितयभासुरम् ॥२॥ प्रावृषेण्यमिवाम्भादं गम्भीरध्वनिगर्जितम् । गिरां विरामे सुत्रामा नत्वा तं भक्तिनिर्झरः ॥३॥ प्रमोदविकसन्नेत्रसहस्रः प्राञ्जलिः प्रभोः । समारेभे स्तुतिं कर्तुमेकतानः प्रसन्नधीः ॥४॥ ॥कलापकम्।। त्वं स्वयम्भूः परंज्योतिः प्रभविष्णुरयोनिजः । महेश्वरस्त्वमीशानो विष्णुर्जिष्णुरजोऽरजाः ॥५॥ भवानिव जगल्लोकमशोकं कुरुते तरुः । अशोकोऽपि निजच्छायासंश्रितं त्वदुपास्तितः ॥६॥ उदम्तहस्तैस्ते दर्यक्षरुद्धतचामराः । धुनन्ति स्मेव भव्यानां रजांसि प्रचितान्यपि ।।७॥ तव च्छत्रत्रयं भाति मुक्ताजालविलम्वितम् । लीलास्थलमिवाऽऽपाण्डु जगल्लक्ष्म्याः समुच्छितम् ॥८॥
(१-४) अब उदयाचलपर्वत की चोटी पर स्थित सूर्यमण्डल की भांति अमूख्यमणिखचित अर्ध सिंहासन पर विराजमान, चलती चामरों से जिस पर पंखा किया जा रहा हैसे शरीरवाले, अशोकवृक्ष के नीचे बैठे हुए, तीन छत्रों से सुशोभित और गम्भीरध्वनि से गर्जना करते वर्षाकालीन बादल के समान जिनदेव को, अपनी वाणी के विश्रान्त होने पर नमस्कार करके भक्ति के निर्झरवाले, प्रसन्नता से विकसित सहस्रनेत्रवाले, प्रसन्नबद्धिवाले और एकाग्रचित्त इन्द्र ने हाथ जोड़कर प्रभु की स्तुति करनी प्रारम्भ की। (५) हे प्रभो । आप स्वयंभू हैं, परम ज्योतिरूप हैं, समर्थ और अयोनिज हैं । आप ही महेश्वर हैं, विष्णु हैं, अज हैं एवं अरज हैं । (६) आपकी उपासना के कारण अशोकवृक्ष भी आपकी तरह अपनी छाया का आश्रय लेने वाले जगत् के लोगों को शोकमुक्त करता है । (७) उन्नत हाथ वाले दक्ष यक्षों के द्वारा हिलाये हुए चामर भव्य लोगों की संचित रज को दूर करते हैं । (८) हे प्रभो !, मुक्ताजाल से लटकता हुआ आपका छात्रय अतीव शोभा देता है। मानो यह छत्रत्रय जगत्लक्ष्मी का समुन्नत श्वेत क्रीडास्थल है ।
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