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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य
श्रीपार्श्वनाथचरितमाह
द्रव्यतः शाश्वतो जीवः पर्यायास्तस्य भङगुराः । षड्द्रव्यात्मकपर्यायैरस्योत्पत्तिविपत्तयः ।।१०२।। अभूत्वा भाव उत्पादो भूत्वा चाभवनं व्ययः । तादवस्थ्यं पुनधौ व्यमेवं जीवादयस्त्रिधा ।।१०३।। एव स्वरूपमात्मनं दुर्दशो ज्ञातुमक्षमाः । विवदन्ते स्वपक्षेषु बद्धकक्षाः परस्परम् ।।१०४।। एके प्राहुरनित्योऽयं नास्त्यात्मेत्यपरे विदुः । अकर्तत्यपरे प्राहुरभोक्ता निर्गुणः परे ।।१०५।। आत्मास्त्येव परं मोक्षो नास्तीत्यन्ये हि मन्वते । अस्ति मोक्षः परं तस्योपायो नास्तीति केचन ॥१०६।। इत्थं हि दुर्नयान् कक्षीकृत्य भ्रान्ताः कुदृष्टयः । हित्वा तान् शुद्ध हक तत्त्वमनेकान्तात्मकं श्रयेत् ।।१०।। भवो मोक्षश्चेत्यवस्थाद्वैतमस्यात्मनो भवेत् । भवस्तु चतुरङ्गे स्यात् संसारे परिवर्तनम् ।।१०८॥
(१०२) द्रव्यदृष्टि से जीव शाश्वत है। जीव के पर्याय विनाशी हैं । छः द्रव्यों की पर्यायों के द्वारा जीव में उत्पत्ति और नाश होता है। (१०३) जो पहले न हो उसका होना-यही उत्पाद है। होने के पश्चात् न होना-यह नाश हैं । और वैसे का वैसा रहना-यही घोव्य है । जीवादि सभी द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों से युक्त है। (१०४-१०७) आत्मा का इस प्रकार का स्वरूप मिथ्या दृष्टि रखने वाले लोग जान नहीं पाते । इसीलिए वे अपने ही पक्ष को पकड़ कर आपस में विवाद करते हैं । मिथ्यादृष्टि वालों का एक वर्ग (बौद्ध) आत्मा को अनित्य मानता है, दूसरा (चार्वाक) आत्मा के अस्तित्व का इन्कार करता है, तीसरा (सांख्य-वेदान्त) आत्मा को अकर्ता, अभोक्ता और निर्गुण मानता है, चौथा आत्मा को मानते हुए भी मोक्ष नहीं मानता है, पांचवां मोक्ष मानते हुए भी मोक्ष का उपाय नहीं है-ऐसा मानता है । इसी प्रकार दुर्नयों का आश्रय करके ये मिथ्यादृष्टि लोग भ्रान्ति में पड़े हुए हैं । इन दुर्नयों को छोड़कर जो सभ्यष्टि हैं उनको अनेकान्तात्मक शुद्ध तत्त्व का स्वीकार करना चाहिए । (१०८). भव और मोक्ष-ये दो आत्मा की अवस्थाएँ हैं। भव का अर्थ है चार गति (देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक) वाले संसार में गति-आगति (आना-जाना, परिवर्तन, जन्म-मरण) ।
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