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पद्मसुन्दरमरिविरचित
११३ दिवि दुन्दुभयः सुरपाणविकै
निहताः सुतरां घन कोणगणैः । न्यगदन्निव ते ध्वनिभिर्भविकान्
___ यौनमिमं स्वहिताय जनाः ॥८२॥ यत्र विभुनिजपादपदानि
न्यस्यति स स्म सुरासुरसङ्घा : । हेममयाम्बुरुहाणि नितान्तं
तत्र नवानि रुचा रचयन्ति ।।८३॥ देवं प्राचीमुखं तं समसृतिमहीसंस्थितं सभ्यलोकाः
प्रादक्षिण्येन तस्थुर्मुनिसुरललनार्यास्त्रिकं च क्रमेण । ज्योतिर्वन्येशदेवीभवनजरमणीभावनव्यन्तरौघा । - ज्योतिप्काः स्वर्गनाथाः समनुजवनिता द्वादश स्युः समन्याः ।।८४॥
जिनपतिवदनाब्जान्निर्जगामाऽथ दिव्य
ध्वनिरचलगुहान्तः प्रश्रुतिध्वानमन्द्रः । प्रसृमरतर एकोऽनेकतां प्राप सोऽपि
स्फुटमिव तरुभेदात् पात्रभेदात् जलौघः ।।८५।।
(८२) स्वर्ग में देवता रूप पाणविकों द्वारा घनकोणों से बजाई हुई दुन्दुभियाँ अतीव ध्वनि कर रही थीं । अपनी ध्वनि से भव्यजनों को मानों यह कह रही थीं कि हे लोगों ! अपने कल्याण के लिए इन पार्श्वनाथ की शरण ले लो । (८३) जहाँ प्रभु पार्श्वनाथ अपने चरणकमल रखते थे वहाँ सुर और असुर समुदाय कान्ति से नये नये सुवर्णमय कमलों को बना दिया करते थे । (८४) पूर्व दिशा की ओर मुख किये हुए समवसरण भूमि में स्थित प्रभु की क्रम से मुनि, देवांगनाये और आर्य लोग प्रदक्षिणा करके खड़े रहे । ज्योतिष्कदेवयाँ, व्यन्तरदेवियां, भवनपति देवों की देवियां, भबनपति देव, व्यन्तरदेव, ज्योतिष्कदेब और मानुषी स्त्रियों के साथ बारह प्रकार के वैमानिकदेव सभा में उपस्थित हुए । (८५) पर्वतीय गुफा के अन्तःस्थल से निकली हुई ध्वनि के समान धीरगंभीर दिव्य ध्वनि जिनदेव के मुखकमल से निकली । वह फैली हुई एक ध्वनि अ.कता
त हुई जिस प्रकार जल का समूह स्पष्ट रीति से तरुभेद एवं पात्रभेद से अनेकता (या विशेषता) का प्राप्त होता है ।
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