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अथाष्टमतपःप्रान्ते श्रीपाश्वों भगवान् स्वयम् । विष्वाणान्वेषणे. बुद्धिं चक्रे कायस्थितीच्छुकः ॥१॥ यतिमार्गप्रदर्शित्वं स्वतनुस्थितिकारिता । सुखेन मुक्तियानं : स्यादित्यर्थः मुनिभोजनम् ॥२॥ न कृशीकुरुते । कार्य: मुनि!पचिनोति वा । किन्तु : संयमवृष्यर्थः प्रयतेत ननु स्थितौ ॥३॥ कर्मणां निर्जरायोपवासादेरुपक्रमः । - तनुस्थित्यर्थमाहारो यतीना सूत्रसूचितः ॥४॥ रसासक्तिमतन्यानो - यात्रायै संयमस्य तु ।। गृहणन्निर्दोषमाहारं मुनिः स्यान्निर्जरालयः ॥५॥ इति निश्चित्य भगवान् पार्श्वः संयमवर्द्धने । कृतोयोगश्चचालायं पुरं पकटं प्रति ॥६॥ युगमात्रस्फुरदृष्टिरीर्यामार्ग विशोधयन् । स प्रतस्थेऽखिला पृथ्वीं पादन्यासैः पवित्रयन् ॥७॥ , क्रमेण विहरन् मध्येनगरं स समासदत् ।
सदा सोत्कण्ठितो लोकः श्रीपाश्र्वस्य विक्षया ॥८॥ १ इसके पश्चात् अष्टमतप के अन्त में कायस्थिति के इच्छुक भगवान् पार्श्व ने स्वयं भोजन ढूंदने का विचार किया । (२) 'विवेकपूर्ण भोजन लेना जिसका एक अंग है ऐसे यतिमार्ग को दिखलाने के लिए, अपने शरीर को टिकाये रखने के लिए और सुखपूर्वक ( अर्थात् बिना दुर्ध्यान ) मुक्तिमार्ग में गति हो सके इसलिए मुनि को भोजन लेना होता है। (३):मुनि न तो शरीर को कृश करे न ही पुष्ट करे, किन्तु संयम को बढ़ाने के लिए ही अपने शरीर को टिकाये रखने का प्रयत्न करे । (४) कर्मों की निर्जरा के लिए उपवास भादि का प्रारंभ होता है। शरीर की स्थिति के लिए मुनियों के आहार का सत्रों में सूचन किया गया है । (५) रस में लोलुपता नहीं करने वाला, केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए दोषरहित भोजन करने वाला मुनि कमनिर्जरा का स्थान है । (६) ऐसा निश्चय करके भगवान् पार्श्व ने अपने संयम को वृद्धि में प्रयत्न करते हुए कूपकट नामक नगर के प्रति प्रस्थान किया । (७) चार हाथ मात्र तक फैलती दृष्टि से ( बहुत सूक्ष्मता के साथ) चलने के रास्ते को (कीट पतंग आदि की हिंसा न हो इसलिए ) बराबर देखकर उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने चरणन्यास से पवित्र करते हुए प्रस्थान किया । (८-९) क्रम से विचरते हुए नगर के मध्य वे पहुंचे तब वहाँ के लोग उत्कण्ठित होकर श्रीपार्श्व को देखने
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