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________________ पप्रसुन्दरसूरिविरचित तस्माद् विश्वस्योपकाराय धातः ! प्रोटि पत्तां धर्मतीर्थप्रवृत्तौ । त्वामासेव्य प्रीयतां भव्यलोकः पर्नन्यं वा चातकः प्रावृषेण्यम् ॥८८॥ स्तुत्वैवं ते स्वर्ययुर्देवदेवं तावञ्चान्ये नाकिनः शक्रमुख्याः । नानावेषाः खादवातीतरंस्ते तस्थुः काशी सर्वतः सन्निरुध्य ॥८९॥ सर्वे सम्भूयाऽभिषिध्य प्रभु ते भूषावेषैर्भषयांचक्र चैः । दिव्यैर्माल्यैर्भूषणैरेष गन्धैः रेजेऽम्भोदः शक्रचापांशुभिर्वा ॥९॥ दध्यान दुन्दुभिरवो जयशब्दमिश्रः - प्रोत्तुङ्गमङ्गलमृदङ्गनिनादसान्द्रः । नृत्यं व्यधुः सलयमप्सरसो जगुश्च शुभ्र यशो जिनपतेः सुरगायनास्ते ॥९१॥ मापृश्य बन्धुजनमेष समाररोह वैङ्गिकोऽथ विशदां शिबिकां विशालाम् । पार्श्वः कृताप्टमतपाः स च पौषकृष्ण कादश्यहन्यवनिपैस्त्रिशतीप्रमाणैः ॥१२॥ (८८) हे पाता !, आप संसार के उपकार के लिए धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति में प्रौदता को धारण करें। भापकी सेवा करके यह भव्यलोक प्रसन्न हो, जैसे चातक (पपीहा) वर्षा के बादको देखकर प्रसन्न होता है। (८९) इस प्रकार वे देवों के देव जिनकी स्तुति करके स्वर्ग को चले गए । (उसके पश्चात्) तुरन्त हो इन्द्र भादि अन्य देवता लोग नाना वेश धारण किए हुए आकाश से उतरे और सब तरफ से काशीपुरी को देखकर खडे हो गये । (९०) सभी ने एकत्रित होकर प्रभु का अभिषेक करके दिग्यमालाओं, आभूषणों और सुगन्धित म्यों से प्रभु को सजाया । वह प्रभु इन्द्रधनुष की कान्ति से शोभित बादल की तरह विराजमान थे। (९१) मृदङ्ग की मंगल और ऊँची ध्वनि से गंभीर और अयघोष से मिश्रित दुन्दुभी की आवाज होने लगी । लयपूर्वक अप्सराओं ने नृत्य करना प्रारंभ किया । दिम्यगायक जिनपति पावकुमार के स्वच्छ यश का गुणगान करने लगे । (९२-९३) उसके पश्चात् अष्टमतपवाले विरक्त पार्श्व बन्धुजनों की अनुज्ञा लेकर शुभ्र एवं विशाल शिविका में चढ़े। पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन पूर्वाह्न में उद्यानगत आश्रमपद में, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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