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________________ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य क्वाहं पूर्व वारणात्माऽथ सम्प्र त्यासं साक्षाद् विश्वविश्वकपूज्यः । श्रेयानस्मान्मोक्षमार्गाभियोगः संसारित्वं केवलं बन्धहेतुः ॥७३॥ भ्राम्यत्येष भ्रान्तिमूढो दुरात्मा । गत्यादीनां मार्गणानां विवतैः । ज्ञानी तस्मान्नापि संसारपके लिप्येतासौ कर्मभावाद विरक्तः ॥७४॥ स्त्रीभोगादौ भेषजे तत्परः स्या देष प्राणी तीवकामज्वरातः । नायं भोगः किन्तु रोगोपचारो नीरोगः किं भेषजं क्वापि कुर्यात् ॥७५॥ निर्द्वन्द्वत्वं सौख्यमेवाहुराप्ताः सद्वन्द्वानां रागिणां तत्कुतस्यम् । तृष्णामोहायासकृच्चान्यनिघ्नं सौख्यं किं स्यादापदां भाजनं यत् ! ॥७६॥ . सौख्यं स्त्रीणामङ्गसङ्गायदि स्यात् ___ तादृग् बाढं तत् तिरश्चामपीह । यद् वा निम्बोदभूतकीटोऽतिमिष्ट मन्येतासौ रागवांस्तद्रसं वा ।७७॥ दीक्षाकाल जानकर वे इस प्रकार से भाव करने लगे कहाँ मैं पहले हाथीरूप था, (और) इस समय सम्पूर्ण विश्व का पूज्य हूँ। इसलिए मोक्षमार्ग का अनुसरण ही कल्याणकर है तथा सांसारिकता ही बन्धन का हेतु है । (७४) भ्रान्ति से मूढ़ यह दुरात्मा गति आदि मार्पणा स्थानों के विवों से संसरण कर रही है। अतः ज्ञानी पुरुष कर्मभाव से विस्वत होकार संसार सभी कीचड़ में लिप्त नहीं होते हैं । (७५) यह प्राणो तीव्र-कामज्वर से पीड़ित होकर स्त्री भीमादि औषधि में तत्पर रहता है। यह भोग नहीं है, किन्तु रोगों का उपचार है। स्था स्वस्थ व्यक्ति कभी भी औषधि का प्रयोग करता है ? (७६) तृष्णा, मोह और आमस का जनक, अन्य के अधीन और आपत्तियों का स्थान जो है उसे क्या सुख माहा भा सकता है? (७७) स्त्रियों के अंगसम्पर्क से ही यदि सुख का अनुभव हो तो वह को भी होता है। अथवा नीम के वृक्ष में पैदा हुआ कीड़ा उसके रस कासगी होने के कारण (रस को) अति मीठा ही मान लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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