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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य जगत्त्रयश्रीविजयस्य सूचिका
बभौ त्रिरेखा किल कण्ठकन्दली । इयं मृगाक्ष्या गुणिना परिष्कृता
- सुवृत्तहारेण गुणानुकारिणा ॥२१॥ सुकोमलाङ्गया मृदुबाहुवल्लरी
द्वयं बभौ लोहितपाणिपल्लवम् । नखांशुपुष्पस्तबकं प्रभास्वराड
___ङ्गदाऽऽलवालद्युतिवारिसङ्गतम् ॥२२॥ तदंसदेशौ दरनिम्नतां गतौ
सुराद्रिकूटातटपार्श्वयोः श्रियम् । बलादिवाऽऽजहूतुरात्तसङ्गरौ
निमश्रिया भर्सितहंसपक्षती ॥२३॥ मुखं सुमुख्याः स्मितकौमुदीसितं
जहास राकातुहिनांशुमण्डलम् । कटाक्षपातव्यतिषङ्गचातुरी
धुरीणमयन्तजडात्मकं नु तत् ॥२४॥ ,विहाय चन्द्रं जडमङ्कपङ्किल
सरोरुहं पङ्ककलङ्कदूषितम् । उबास लक्ष्मीरकलङ्कमुच्चकै
रिति प्रतक्र्येव तदीयमाननम् ॥२५॥ (११) तीन रेखा वाली इस मृगाक्षी कन्या की कण्ठ कन्दली लोकत्रय के विजय की सचक ऐसी गुण (डोरी) का अनुकरण करनेवाले और गुणयुक्त (डोरी में पिरोये हुए) गोलाकार हार से अतिशय शोभायमान थी। (२२) उस अत्यन्त कोमल अङ्गवाली कन्या की चमकीले अङ्गदरूप आलवाल के द्युतिरूप वारि से युक्त, नखांशुरूप पुष्पगुग्छवाली, कुंकुमवर्ण पाले कररूप (रक्त) पल्लव वाली दो कोमल बाहुरूप लताएँ शोभायमान थीं। (२३) युद्ध का जिन्होंने आश्रय लिया है ऐसे उस कन्या के कुछ मुके हए कन्धे मेकपर्वत के शिखर के तटरहित दो पाश्चों की (चालुओं की) शोभा को हठात् हरण करते ये और अपने सौन्दर्य से हंस के दो पङ्खों को तिरस्कृत करते थे । (२४) चारुवदनी का हसता हुओ वह मुख स्मितरूपी कौमुदी से धवल, कटाक्षों के द्वारा (एक दिल को दूसरे दिल से) जोड़ने की श्रेष्ठ चातुरीवाला और मुग्ध कर देने वाला, कौमुदी स्मित से धवल, फलक (=कट) के साथ पासाओं के पात को मेल कराने की श्रेष्ठ चातुरीवाला और शीतल स्वभाववाला चन्द्र तो नहीं ? (२५) शीतल और कलङ्क से दूषित चन्द्र को छोड़कर तथा कादव के दोष से दूषित कमल को छोड़कर लक्ष्मी "उसका मुख अत्यन्त निष्कल है" ऐसा समझकर मानों उसमें निवास करती थी।
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