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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य आलानं विगणय्य गण्डविगलद्दानाम्बुपूरो गजः
प्रोदामश्चलकर्णता लत लः पांशूत्करं व्याकिन् । भजन्तं दुकमागतोऽपि सविधं नाकामति त्वत्पदा
सक्तं भक्तमसौ कदापि भगवन्नऽऽघातुकोपि स्फुटम् ।।१८७/ कटिकोटिविपाटनलम्पट -
प्रखरताविलसन्नखरो हरिः तब पदस्मृतिमात्रपरं नरं ..
न समुपैति रुष ऽप्यरुणेक्षणः ॥१८८॥ कृतफणामणिदो तरुचिः फणी
ररलमेष महोवणमुगिरन् । प्रकुपितस्तव पादयुगाश्रितं
किमपि भीषयते न भयङ्करः ॥१८९॥ प्रलयवहिरिव ज्वलितोऽर्चिषा
समधिकेम मृद्धिसमेधितः । तब पदस्मृतिशीतजलाप्लुतं
न च पराभवति ज्वलनः क्वचित् ॥१९॥ द्रुघणधन्वशरासिपराहत
__ द्विग्दंपत्तिभटाश्वचमूत्करे समरमूर्धनि ते विजय श्रय
भुवि लसन्त इह त्वदुपासकाः ॥१९१॥ (१८७) गण्डस्थल से झरते हुए दानवारि के पूर गला, चञ्चलकर्णताल से चपल, धूलि के कगों को बिखेरता हुआ, अपने बन्धन को भी गोड़कर उस पेड़ को तोहता हुआ मस्तीवाला हाथी आकर भी आपके उपर आक्रमण नहीं करता किन्तु आपके पैर को छता है। वह घातक होते हुए भी कभी आपका भक्त रहा होगा यह निश्चित ।। (१८८) क्रोध से रक्तनेत्र, करोड़ों हाथिओं के गण्डस्थल के विदारण में दक्ष, सेज नाखनों वाला सिंह आपके स्मरण में लगे हुए मानव के पास नहीं आता । (१८९) अपने फणों में लगी हुई मणि से दीप्त कान्ति वाला, भयंकर जहरीला क्रोधित सर्प भी आपके चरण. युगल में आश्रित व्यक्ति को डराने में समर्थ नहीं है । (१९०) प्रलयकालीन वह्नि की तरह अपनी ज्वालाओं से जलती हुई, अधिक इन्धन से अत्यन्त बढ़ी हुई अग्नि भी आपके चरण के स्मरण रूप शीतल जल से आप्लावित व्यक्ति का पगभव कहीं पर भी नहीं कर सकती । (१९१) हे भगवन्!, दुधग, धनुष, बाण, खड्ग आदि से शत्रु के मारे हुए होथा, पदातिसेना, योद्धा व अश्वादि सेना वाले इस समराङ्गण में आपकी विजयश्री को देखकर आपके उपासक पृथ्वी पर अलंकृत हैं ।
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