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पद्मसुन्दरसूरिविरचित
गवाकृतीन् सुतान् गावो जनयन्त्यखिलाः परम् । पुङ्गवं कापि धौरेयं शृङ्गोल्लिखितभूतलम् ॥८९॥ जननी जनयेत् पुत्रमेकमेव हि वीरसूः । शूरं परःशता नार्यः शतसंख्यान् सुतानपि ॥९०॥ उक्तं च
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शूराः
आहवेषु च ये स्वाम्यर्थत्यक्तजीविताः । भृत्यभक्ताः कृतज्ञाश्च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥९१॥
यत्र यत्र हतः शूरः शत्रुभिः परिवेष्टितः । अक्षयांल्लभते लोकान् यदि क्लैब्यं न गच्छति ॥९२॥ अपि च
सत्यधर्मव्यपेतेन न संदध्यात् कदाचन । , संसन्धितोऽप्यसाधुत्वादचिरादेति विक्रियाम् ॥९३॥ प्रणामादुपहाराद्वा यो विश्वसिति शत्रुषु ।
सुप्त इव वृक्षाग्रे पतितः प्रतिबुध्यते ॥९४॥ आत्मोदयः परज्यानिद्वर्य नीतिरितीयती । तदूरीकृत्य कृतिभिर्वाचस्पत्यं प्रतायते 118411
(८९) सभी गायें अपनी आकृति के समान ही पुत्रों को उत्पन्न करती हैं, लेकिन कोई विरला गाय ह सींगों से पृथ्वी को उचाटने वाले अग्रगण्य श्रेष्ठ वलीवर्द को उत्पन्न करती है । (९०) वीर को पैदा करने वाली माता एक ही शूरवीर पुत्र को पैदा करती है लेकिन सैकड़ों नारियाँ (साधारण नारियाँ) सैकड़ों (सामान्य) पुत्रों को भी पैदा करती हैं । (९१) कहा मी है - युद्ध में जो वीर अपने स्वामी के लिए प्राण त्याग देते हैं वे ही भक्तसेवक कृतज्ञ हैं और वे ही स्वर्गगामी होते हैं । (९२) जहाँ जहाँ युद्धस्थल में शत्रुओं से घिरा हुआ जो शूर - और मारा जाता है, वह यदि अधीर (कायर) न हो तो अक्षयलोक में जाता है । (९३) और भी - सत्य और धर्म से रहित राजा ( अथवा पुरुष ) के साथ कभी भी संधि नहीं करनी चाहिए । अच्छी तरह से संधि किया हुआ भी वह दुष्टता के कारण पुनः विकार (क्रोश-द्वेष) को प्राप्त होता है । (९४) जो राजा प्रणाम के कारण या उपहार के कारण शत्रुओं में विश्वास कर बैठता है वह वृक्ष के अग्रभाग पर सोये हुए की भाँति गिरता हुआ ही नजर आता है । ( ९५ ) स्वयं की उन्नति (व) शत्रुओं की हानि - ये दो ही नीति और इतनी ही नीति है । इनका स्वीकार कर के ही कृतकृत्य हुए राजालोग अपनी नीतिकुशलता
फैलाते हैं ।
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