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________________ प्रेमसुमन जैन शाताधर्मकथा, विपाकसून, समराइच्च कहा, तिलकमंजरी, रयणचूडरायचरियं आरामसोहाकहा, भविसयत्तका २ आदि जैन साहित्य के ग्रन्थों में सार्थ के स्वरूप, उद्देश्य एवं कार्यों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त है। इस हितकारी सामाजिक संस्था का सर्वागीण मूल्यांकन अभी किया जाना शेष है । इसके अध्ययन से भारतीय समाज के स्वरूप पर नया प्रकाश पढ़ सकता है। ग्रन्थ-भण्डार : समाज में जनहित के विकास के लिए कई संस्थाओं ने काम किया है। शिक्षा के क्षेत्र में पाठशाला, गुरुकुल, जनावरे आदि महत्वपूर्ण केन्द्र थे । किन्तु ग्रन्थभण्डार जैसी सामाजिक संस्था ज्ञान की सुरक्षा के साथ-साथ सामाजिक उत्थान की कई प्रवृत्तियों में अग्रणी रही है। इतिहास की दृष्टि से ग्रन्थ भण्डारों में समाज को कई जातियों, परिवारों, रीतिरिवाजों एवं राजाओं को जीवन-पद्धति का इतिहास छिपा हुआ है। साहित्यक दृष्टि से ये ग्रन्थ भण्डार कई प्रवृत्तियों के जनक रहे हैं। लिपि एवं लिपिकार का इतिहास ग्रन्थ भण्डारों के अध्ययन के बिना अधूरा है । कितने ही लोगों को इन भण्डारों के माध्यम से शिक्षा प्राप्त हुई है। १२ आजीविका मिली है। अतः जैन स हिश्य में जिन ग्रन्थ भण्डारों का विवरण प्राप्त है तथा जो आज भी समाज में विद्यमान हैं, उन सबका समाज शास्त्रीय दृष्टि से मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है । इस प्रकार जैन साहित्य में वर्णित इन जन कल्याणकारी संस्थाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि जैनचार्यों ने अपनी दार्शनिक परम्परा से स्वीकृत दान की महिमा का कई अर्थों में विस्तार किया है। आहारदान की व्यापकता के अन्तर्गत समाज में प्रथाओं और सन्त्रागारों की स्थापना के द्वारा जनसामान्य की भूख-प्यास के निवारण का प्रयत्न किया गया है। मनुष्य की यायावर प्रवृत्ति को गतिशील रखा गया है। सभा मण्डप, आगमन गृह आदि की व्यवस्था द्वारा राहगीरों को सुरक्षा प्रदान की गयी है । यह अभयदान का विस्तार है । आरोग्यशालाएँ खुलवाकर मनुष्य के तन-मन को स्वस्थ रखा गया है, जिससे वह पुरुषार्थ की साधना कर सके। सार्थ की व्यवस्था उसे आर्थिक स्वतन्त्रता और आवागमन की निश्चितता प्रदान करती है । ग्रन्थभण्डारों का प्रवर्तन राष्ट्र की धरोहर की सुरक्षा के प्रति एक सजगता है । साथ ही जन-जीवन के लिए साक्षरता अभियान भी । शास्त्रदान की भावना का इससे बढ़कर और क्या उपयोग होगा ? जैन साहित्य में वर्णित इन परोपकारी संस्थाओं का सूक्ष्म अध्ययन एक और हमें मध्ययुगीन समाज की समृद्धि और लोकचेतना से परिचित कराता है तो दूसरी ओर वर्तमान युग के लिए समाज की समृद्धि और धार्मिक भावना के वास्त विक ऊपयोग से लिए पथप्रदर्शन भी कराता है । Jain Education International - -: सन्दर्भ : * श्रमणविद्या संकाय, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा फरवरी १८३ में आयोजित 27. भा. यु. जी. सी. सेमिनार में पठित निबन्ध १. संघवी, पं० सुखलाल जैन धर्म का प्राण, पृ० ५६-५९ , २. जैन, डा० हीरालाल, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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