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________________ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य चरमेऽप्यवतारे ते परमश्रीमहोदया । जम्मेऽस्तु नमस्तुभ्यमवसेनसुतात्मने ॥२१७॥ स्तुत्वा त्वां भगवन्नेवं क्यमाशास्महे फलम् । भवे भवे भवानेष भूयान्नः शरणं जिनः ॥२१८॥ स्तुत्वेति तं गुणैर्भूतैः शक्राचानिदशावताः । क्रमाच्छिवपुरी याताः परमानन्दनन्दिताः ॥२१९॥ सौधर्मेन्द्रोऽथ जगतामीशितारं मितैः मुरैः । राजसौधाङ्गणे सिंहविष्टरे तं न्यवीविशत् ॥२२०॥ भश्वसेनोऽथ नृपतिः सानन्दै पुलकाञ्चितः । ददर्श दर्शनतृप्तस्तं मुदा मेदुरेक्षणः ॥२२१॥ पौलोम्या जिनमाताsथ मायानिद्रा वियुज्य सा । प्रबोधिता तशिष्ट विभुमानन्दनिर्भरा ॥२२२॥ ततः क्षोमयुगं कुण्डलस्यं च बिनान्तिकम् । सुवर्णकन्दुकं श्रीदामगण्डं मणिरत्नयुक् ॥२२३॥ हारादिभिः शोभमान विताने प्रीतये विभोः । . चिक्षेप शक्रो द्वात्रिंशद्धेमकोटी: कुबेरतः ॥२२॥ २१७)मायके इस अन्तिम अवतार में महान् उदयवाली परमलक्ष्मी फैली हुई है। (ऐसे) भवसेन के पुत्र आपको नमस्कार हो। (२१८) हे प्रभो ! हम देव आपकी इस प्रकार स्तुति करके इस कल की आशा करते हैं कि प्रत्येक जन्म में आप जिनदेव ही हमारे आश्रय होवें । (२१९) इस प्रकार योग्य गुणों से भगवान् जिनदेव की स्तुति करके इन्द्रादि सहित सभी देव परम भानन्दपूर्वक अनुक्रम से शिवपुरी को चले गये । (२२०) तब सौधर्मेन्द्र ने कुछ देवताओं के साथ उन जगत् के स्वामी को राजप्रासाद के प्रांगण में सिंहासन पर बैठाया । (२२१) हर्ष से रोमाञ्चित, प्रमोद से सभर नेत्रवाले अश्वसेन राजा ने उसका दर्शन किया और वह (राजा) दर्शन से तृप्त दुभा । (२२२) शची के द्वारा माया निद्रा को पृथक् किये जाने पर जगायी गयी जिममाता ने आनन्द विभोर होकर प्रभु जिन को देखा । (२२३-२२४) बाद में, प्रभु की प्रसन्नता के लियेस ने मण्डप में जिनदेव के नजदीक दो रेशमी दुपट्टे, दो कुण्डल, सुवर्ण की गेंद, मणिहार आदि से शोभायमान तथा मणिरत्नजटित श्रीदामगण्ड फेंके और कुबेर के पास से लेकर बत्तीस करोड स्वर्णमुद्राओं की दृष्टि की । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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