________________
पद्मसुन्दरसूरिविरचित सुराः क्षीराम्बुधेः कुम्भैः शातकुम्भमयैर्मुदा । स्नानीयम् अथ पानीयमानयामासुरुज्ज्वलम् ॥१२९।। तैरम्भःपूरितैः कुम्भमुखे योजनविस्तृतैः । । वसुयोजनगम्भीरैरारब्धः सवनोद्धवः ॥१३०॥ ते चान्दनैवैरब्जैर्मुक्तादामभिरञ्चिताः । सुरैः करधृता व्योम्नि शतचन्द्रश्रियं दधुः ॥१३१॥ जिनजन्माभिषेके प्राक् कलशोद्धारमाचरत् । - अच्युतेन्द्रो जयेत्युक्त्वा धुरि धारां न्यपातयत् ॥१३२॥ तस्थुः शेषास्तु कल्पेन्द्राश्छत्रचामरधारिणः । सधूपभाण्डकलशा वज्रशूलास्त्रपाणयः ॥१३३॥ ततो दुन्दुभयस्तारं दध्वनुाप्तदिक्तटाः । नृत्यमारेभिरे देवनर्तक्यः कलगीतिकम् ॥१३४॥ कालागुरुकृतोदामधूपधूमः खमानशे । साक्षतोदकपुष्पाणि निक्षिप्यन्ते स्म नाकिभिः ॥१३५॥ • केचित् सुरा गन्धवर्ति कुर्वते गन्धबन्धुराम् । परे सुवर्णाभरणरत्नपुष्पादिवर्षणम् ॥१३६॥
(१२९) देवता लोग क्षीरसागर से स्वर्णमय कलशों में, प्रसन्नतापूर्वक स्नान का उज्ज्वल जल लाये । (१३०) उन जलपूर्ण, अष्टयोजन गहरे, मुख में योजनपर्यन्त विस्तृत घड़ों द्वारा स्नान का उत्सव प्रारंभ किया गया। (१३१) द्रवित चन्दनचूर्ण तथा मोतिओं से अलंकृत, देवताओं के द्वारा हाथ में धारित वे कलश आकाश में सैकड़ों चन्द्र की शोभा को धारण करते थे। (१३२) अच्युतइन्द्र ने जिन भगवान् के जन्माभिषेक में प्रथम कलश उठाया और 'जय जय' की ध्वनि के साथ अग्रभाग में जलधारा डाली । (१३३) शेष कल्पेन्द्र छत्र, चामर धारण किये हुए, धूमपात्र और कलश सहित तथा वज्र, शूल व अस्त्रादि हाथ में लिये हुए स्थित थे। (१३४) तब चारों दिशाओं को व्याप्त कर देने वाले नगाड़े जोर से बजने लगे । देवनत किया मधुर ध्वनि से गीत गाती हुई नृत्य करने लगीं । (१३५) कालागुरु से किया उत्कट धूप का धुभा आकाश में फैल गया और देवों के द्वारा अक्षत सहित पुष्प, जल आदि फेंके आने लगे। (१३६) कोई देवता सुगन्धित धूप करने लगे, कुछ अन्य सुवर्णभूषण के साथ रत्न और पुष्प को वर्षा करने लगे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org