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. श्रीपार्वनाथचरितमहाकाव्य
दांमद्वयं सुमामोदभ्रमभ्रमरझंकृतम् ।। सम्पूर्णमण्डलं - चन्द्र ज्योत्स्नोयोतितभूतलम् ॥२४॥ प्रद्योतनमथोद्यन्तमुदयादेस्तमोपहम् । बहिबह विचित्राभं ध्वजं . दण्डाग्रमण्डितम् ॥२५॥ पूर्णकुम्भं ततः पदमपिहितं सुप्रतिष्ठितम् । नानापद्मपरागश्रीशोभि पद्मसरो महत् ॥२६॥ जलधिं पवन-क्षोभ-चलत्कल्लोलभासुरम् । स्वर्विमानं स्फुरद्रत्ननिःसपत्नप्रभोज्ज्वलम् ॥२७॥ .. रत्नोच्चमं समुत्सर्पदीप्तिविच्छुरिताम्बरम् । . ज्वलज्ज्वलनमुज्ज्वालं निर्धू मं सा जिनप्रसूः ॥२८॥ अष्टभिः कुलकम् ॥ स्वप्नान्ते च प्रबुद्धा सा बभूवाऽऽनन्दमेदुरा । वपुः पुलकितं तस्या वृष्टी नीपप्रसूनवत् ॥२९॥ ततः साऽकल्पिताऽऽकल्या प्रमोद वोढुमक्षमा । निजाङ्गेष्विति तन्वङ्गी भर्तुरभ्यर्णमभ्यगात् ॥३०॥ उचिते समयेऽथोचे स्वामिन् ! स्वप्नानिमानहम् । अद्राक्षं मध्ययामिन्यां पावकान्तान् गजादिकान् ॥३१॥ -
युक्त दो मालाओं को; तथ। अपनी ज्योत्स्ना से भूमण्डल को प्रकाशित करने वाले, सम्पूर्ण प्रणाम वाले चन्द्र को महारानी ने देखा। (२५-२६) उदयाचल से उठे हुए, अन्धकार को दूर करने बाले सूर्य को और मयूरपिच्छ ( मोर के पंख समान) जैसे रंगबिरंगे और दण्ड के अप्रभागअलंकृत ध्वज को; कसल से आच्छादित सुप्रतिष्ठित पूर्णकुम्भ को तथा अनेक पापराम की मन्ति से सशोभित बड़े कमल के सरोवर को महारानी ने देखा । (२७) पवन जनित क्षोभ की चंका तरंगों से देदीप्यमान सागर को प्रकाशमान रत्नों की अनुपम प्रभा से उज्जवल स्वायसिमाल को महारानी ने देखा । (२८) चारों ओर फैलती हुई अपनी दोप्ति से आकाशमण्डलको व्याप्त करने काली रत्नराशि को; और ऊर्ध्वगामी ज्वालाओं वाली जलती हुई घूमरहित अग्नि को जिनदेव की माता ने देखा । (२९) स्वप्न के अन्त में वह जगी और आनन्दविभोर हो गयी । वर्षा ऋतके कदम्ब पुष्प की भांति ही उसका शरीर पुलकित हो उठा । (३०) तदनन्तर अकल्पित भारत काली वह कृशाङ्गी महारानी उस आनन्द को अपने शरीर में वहन करने में असमर्थ होसी-ई अपने पति के पास पहुँची। (३१) उचित अवसर पाकर उसने महाराज से कहा-स्वामिन ।, मैंने मध्यरात्रि में हाथी से लेकर अग्नि तक के इन स्वप्नों को देखा ।
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