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________________ . श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य आर्थक्षितौ भरतवर्षसुरम्यदेशे नानावनाद्रिसरिदावृतसन्निवेशे । अतः सकलपरतनर्मित शोभातिशायिविभवं भुवि पोतनाख्यम् ॥४॥ हाणि यत्र मणिकुट्टिममञ्जुलानि व्योमानचुम्बिशिखराणि मरुद्गणानाम् । स्वैरंशुभिः किल हसन्ति विमानवृन्दै शुभ्रस्फुटस्फटिकभित्तिविराजितानि ॥५॥ आस्ते यत्र महाजनः परमुभव्यक्तौ पटुः स्वस्तुतौ मौनी क्षान्तिपरः स्वशक्तिविभवे दाने वदान्यो भृशम् नातिक्रामति नीतिवम तिजकं रथ्येव नेमि क्वचिद् धर्माचारविचारणैकचतुरः श्रीदोपमानः निया ॥६॥ तत्रारविन्दनृपतिर्नयचुचुरुद्यचूचापप्रतापपरिभृतविपक्षवर्गः । राज्यं शशास किल. धर्मपथाविरुद्धा वास्तां निरस्तविषयस्य तथार्थकामौ ॥७॥ (४) आर्यावर्त में अनेक बन, पर्वत और नदियों से आच्छादित ( =ढके हुए ) संस्थान बारीर) वाले ऐसे रमणीय भारत वर्ष में समस्त नगरों से अधिक समृद्धि वाला तथा शोभा के अतिशय से सम्पन्न वैभववाला पृथ्वी पर पोतन नाम का नगर था॥ (५) मणिजड़ित फर्श से सुन्दर, 'आकाश के अग्रभाग को स्पर्श करने वाले शिखरों वालो, श्वेत चमकोले स्फटिक की भितियों से सुशोभित हवेलियाँ इस नगर में अपनी किरणों से मानों देवों के विमानों की हँसी उच्च रही हो!॥ (६। जहाँ (-उक्त नगर में) बड़े बड़े श्रष्ठिगण (सेठ लांग ) दूसरों के गुण प्रगट करने में चतुर थे, स्वकीय प्रशंसा में मौन थे, अपने पराक्रम का वैभव होते हुए भी शान्तिपरक थे, दान कार्य में अतीच उदार थे, कहीं पर भी नेमि का उल्लङ्घन नहीं करने वाले चक्र के समान न्यायमार्ग का उल्लङ्घन न करने वाले थे, धर्माचरण तथा विचारशालीनता में दक्ष थे, और लक्ष्मी में सदा कुबेर के समान थे ॥ (७) उस नगर में, न्याय में कुशल, देदीप्यमान धन प्रताप से शत्रु वर्ग को तिरस्कृत करने वाला अरविन्द नामक राजा शासन करता था। विषयवासनाओं से रहित उसके प्रति (-राजा के प्रति ) अर्थ और काम - ये दोनों ही धर्म मार्ग से अविरुद्ध थे । ( अर्थात् अर्थ व काम धर्म के विरोधी नहीं थे) ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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