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हरिवल्लभ भायाणी
'मायाशकट के संहारक जनार्दन को भ्रमस्कुल, मेघ और कुवलय के वर्णको धारण करने वाली यमुना दृष्टिगोचर हुई, मानों सूर्य-भय से भूसल पर भा कर निशा बैठ गई हो। मानों वसुधासुंदरी की रोमावलि, या इन्द्रनीलमणि से पूर्ण खानि, या तो कालियनाग की मानहानि । उस समय सभी ग्रामीण गोपजन एवं गर्विष्ठ यादव कृष्ण के पराक्रम देखने को. आए । देव भी अन्तरीक्ष एवं स्वर्ग में ठहर कर कृष्ण का साहस देख रहे थे। दानवमर्दन . देवकीनंदनने यमुना का ह्रद विक्षुब्ध कर डाला । सभी जलचरों में खलबली मच गई। अलगशि छिन्नविच्छिन्न हो गया । गर्विष्ठ सर्प बाहर नीकल आया। कृष्ण, कालिय एवं कालिन्दीजल तीनो श्याम पदार्थ एक दूसरे में समिलित हो गए। सब कुछ कालाकलुटा.हो गया । अब देखनेवाले क्या देखें ?'
उद्धाइउ विसहरु विसमलीलु कलिकालयतरउद्दसीलु कालिंदिपमाणपसारियंगु
विवरीयचलियजलचरतरंगु विप्फुरियफणामणिकिरणजालु फुक्कारभरियभुवणंतरालु मुहकुहरमरुद्धयमहिहरिंदु . जयणग्गिझुलुक्कियअमरबिंदु विसदूसिउ जउणाजलपवाहु अवगणियपंकयणाहणाहु . दप्पुढुरु उद्धफणालिचडु
णं सरिए पसारिउ वाहुदंडु । उप्पण्णउ पण्णउ अजउ कोवि पहरिज्जहि णाह णिसंकु होवि तो विसमविसुग्गारुग्गमेण हरि वेदिउ उरि उरजंगमेण
पउणदहे एक्कु मुहुत्तु
केसउ सलीलकील कर रयणायरे मंदरु णाई
विसहरवेदिउ संचरह
(सं० ६, क. २) हुआ विषधर कृष्ण के प्रति लपका । कलिंकाल भौर कृतान्त से रौद्र कालियने कालिन्दी जितना अंग फैलाया । जलचर और जलतरंग प्रतापगमन करने लगे। उसके फणामणि से किरणजाल का विस्फुरण होने लगा । फुत्कार से बह भवनों के भंतराल को भर देता था। उसके मुखकुहर से निकलते हुए निःश्वासों की सपट से पहार भी कांपते थे। उसकी दृष्टि की आंग्नज्वाला से देवगण भी जलते थे। उसके विष से यमुना का जलप्रवाह दुषित हो गया । कृष्ण को अवगणना कर के दर्जेद्धत कालियने प्रचण्ड फणावलि को ऊँचा उठाया। मानों यमुनाने अपने भुजदण्ड पसारे । 'यह कोई अजेय पन्नाग उत्पन्न हुआ है। उस पर हे नाथ, निःशंक होकर प्रहार करों' तब उग्र विषवमन करते हए उरगने हरि के उरःप्रदेश को लपेट लिया । यमुनाहद में एक मुहर्त केशव अलक्रीडा करने लगे । विषधर से वेष्टित हुए वे सागर में मन्दराचल की तरह घूमने लगे।' णियकतिए असुरपरायणेण
कालिउ ण दिलृ णारायणेण उप्पण्ण भति ण णाउ गाउ विप्फुरिउ ताम फणमणिणहाउ उज्जोएं जाणिउ परम चारु । को गुणेहि ण पाविड बेषणार .. तो समरसहासहिं दुम्महेण
भुयदंड पसारिय महुमहेण
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