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________________ मुनि शीलचन्द्रविजय 'द्वादशार-नयचक्र'नी प्रति घणाओए भेगा थईने लखवी पडी तेनु कारण, "ते प्रति अन्यनी होय अने तेने झट-बांधेली मुदतमां परत करी देवानी होय" एवु' पूज्य पुण्यविजयजी महाराजे कल्प्यु छे. पण, आकर्मप्रकृति-टीकाग्रंथ' पोतानो ज रचेलो होई तेवी कोई वात तो हती जनहि. छतां बधाए मळीने शा सारूळखी हशे? आना ऊपर विचार करतां लागे छे के आपणे त्यां परापूर्वथी निखालस अने सरळ्हदय सज्जनोनी प्रणालिका रही छे के कोई व्यक्ति सारं कार्य करती होय तो तेने बनती सहाय करवी. अने तेमांय, उपाध्यायजीन कार्य तो ज्ञानोपासनानु हतु, जे बीजाओ माटे अतिविरल हतु. परंतु, भले बीजाओ एमना जेवी सीधी ज्ञानसाधना न करी शके, पण एमना द्वारा थती मजोड ज्ञानसाधनामां आ प्रकारे पोतानो फाळो तो नोंधाबी शके ने १ अने जैन साहित्यमां तो ज्ञान अने ज्ञानीनी आ के आवा प्रकारनी भक्ति-शुश्रूषाने घणुं न प्रशस्त अने शुभ कार्य गणान्यु छे. 'कर्मप्रकृति'नी उपाध्यायजीरचित टीकानी प्रति सघळा समुदाये मळोने लखवानु कारण आवु ज काईक होवानी शकयतानो इन्कार करवा मन ना पाडे छे. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520759
Book TitleSambodhi 1980 Vol 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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