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________________ २२ जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया जैन विचारणा के अनुसार यह सविपाक निर्जरा तो आत्मा अनादिकाल से करता आ रहा है लेकिन निर्वाण का लाभ प्राप्त नहीं कर सका । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं यह चेतन आत्मा कर्म के विपाक काल में सुखद और दुःखद फलों की अनुभूति करते हुए पुनः दुःख के बीज रूप आठ प्रकार के कर्मो का बन्ध कर लेता है। क्योंकि कर्म जब अपना विपाक देते हैं तो किसी निमित्त से देते हैं और अज्ञानी आत्मा शुभ निमित्त पर राग और अशुभ निमित्त पर द्वेष करके नवीन बन्ध कर लेता है । अतः साधना मार्ग के पथिक के लिए पहले यह निर्देश दिया गया कि वह प्रथम ज्ञान युक्त हो कर्मास्रव का निरोध कर अपने आपको संवृत करे । संवर के अभाव में जैन साधना में निर्जरा का कोई मूल्य नहीं, वह तो अनादिकाल से होती आ रही है किन्तु भव परम्परा को समाप्त करने में सहायक नहीं हुई। दूसरे यदि आत्मा संवर का समाचरण करता हुआ भी इस यथाकाल होने वाली निर्जरा की प्रतीक्षा में बैठा रहे तो भी वह शायद ही मुक्त हो सके क्योंकि जैन मान्यता के अनुसार प्राणो के साथ कर्म वन्ध इतना अधिक है कि वह अनेक जन्मों में हो शायद इस कर्म बन्ध से स्वाभाविक निर्जरा के माध्यम से मुक्त हो सके। लेकिन इतनी लम्बी समयावधि में संवर से स्खलित होकर नवीन कर्मों के बन्ध को सम्भावना भी तो रही हुई है। अतः साधना मार्ग के पथिक के लिए जो मार्ग बताया गया है. वह है औपक्रमिक या अविधा निर्जरा का। महत्त्व इसी तप जन्य निर्जरा का है। ऋषिभाषित सूत्र में ऋषि कहता है कि संसारो आत्मा प्रतिक्षण नए कर्मो का बन्ध और पुराने कर्मों को निर्जरा कर रहा है लेकिन तप से होने वाली निर्जरा ही विशेष (महत्त्वपूर्ण) है । बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति से बढ़ रहा है किन्तु (जो) साधक संवर द्वारा नवीन आस्रव को निरुद्ध कर तपस्या द्वारा पुरातन कर्मों को क्षीण करता चलता है, वह अन्त में पूर्ण रूप से निष्कर्म बन जाता है, मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। संदर्भ संकेत : (१) कर्म ग्रन्थ १ पृ. १. (२) दर्शन और चिन्तन पृ. २२५. (३) गोम्मटसार कर्म काण्ड ६ (४) अष्टसहस्री पृ. ५१. (५) कर्म विपाक भूमिका पृ. २४ (६) अमर भारतो नव. ६५ पृ. ९. (७) Jain Studies p. 225-26. (८)Jain Studies - p. 228. (९) तत्त्वार्थ ८.४ (१०) अमर भारती नवम्बर ६५ पृ. ११-१२ (११) समयसार २१८-२१९ (१२) मज्झिम निकाय ३.१.३. (१३) उदधृत Jain Studies p. 254. (१४) तत्वार्थ ८.२-३१ (१५) तत्त्वार्थ ६.१ -२ (१६) तत्त्वार्थ ९.३-४ (१७) तत्त्वार्थ ६.५. (१८) तत्त्वार्थ ८.१. (१९) समयसार १७१ (२०) उत्तराध्ययन३२.७ (२१) समयसार १५७. (२२) सूत्र तांग १.८ (२३) सूत्रकृतांग १.८.३. (२४) आचारांग १.४.२.१. (२५) उत्तराध्ययन सूत्र २८.१४. (२६) तत्त्वार्थ १.४. (२७)ऋषिभाषित ९.२. (२८) समयसार १४५-१४६ (२९) प्रवचनसार टोका १.७२. (३०). समयसार टीका प्र. २०७ (३१) तत्वार्थ ९.१ (३२) सर्वदर्शन संग्रह पृ. ८० (३३) स्थानांग ५.२.४२७ (३४) उत्तरायपन २९.२६ (३१) धम्माद ३९०-३९३ (राहूलजीकृत हिन्दी अनुवाद) (३६) द्रव्य संग्रह ३४ (३७) सवायांग ५.५ (३८) स्थानांग ८.३.५९८ (३९) सूत्रकृतांग १.८.१६ (४०) दशौ कालिक १० १५ (४१) उत्तराध्ययन ३०.५-६ (४२) समयसार ३८९ (४३) ऋविनासित ९.१० (४४) जैनधर्म पृ. ८७. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520759
Book TitleSambodhi 1980 Vol 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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