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________________ जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया (इ) कर्म सिद्धान्त चेतन आत्म तत्त्व को प्रभावित करने वाली प्रत्येक घटना एवं अनुभूति के कारण की खोज बाह्य जगत में नहीं करता वरन् आन्तरिक जगत में करता है । वह स्वयं चेतन सत्ता में ही उनके कारण को खोजने की कोशिश करता है । जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द का अर्थ : २ गई हैं । सामान्यतया क्रिया को कर्म कहा जाता है, क्रियाएँ तीन प्रकार की मानी १ - शारीरिक, २ - मानसिक, और ३ - वाचिक; शास्त्रीय भाषा में इन्हें योग कहा गया है । लेकिन जैन परम्परा में कर्म का यह क्रिया परक अर्थ कर्म शब्द की एक आंशिक व्याख्या ही प्रस्तुत करता है । उसमें क्रिया के हेतु पर भी विचार किया गया है । आचार्य देवेन्द्र सूरि कर्म की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है? | पंः सुखलाल जी कहते हैं मिथ्यात्व कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही कर्म कहलाता है । इस प्रकार वे कर्म के हेतु और क्रिया दोनों को ह कर्म के अन्तर्गत ले जाते हैं । जैन परम्परा में कर्म के दो पक्ष हैं ( १ ) रागद्वेष, कषाय आदि मनोभाव और (२) कर्म पुद्गल । कर्म पुद्गल क्रिया का हेतु है और रागद्वेषादि क्रिया है । कर्म पुद्गलः से तात्पर्य उन जड़ परमाणुओं से है, जो प्राणी की किसी क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर उससे अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं और समय विशेष के परिपक्व होने पर पफ ( विपाक ) के रूप में विशेष प्रकार की अनुभूतियाँ उत्पन्न कर अलग हो जाते हैं कर्म कहते हैं। संक्षेप में जैन विचारणा में कर्म मे तात्पर्य आत्म-शक्ति कुष्ठितांच करने वाले तत्व से है । को - सी आस्तिक दर्शनों में एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है जो आत्म तत्त्व या कर्म कहता है । वही सत्ता अदृष्ट और मीमांसा में अपूर्व साथ साथ अविद्या, संस्कार अदृष्ट और संस्कार तथा में प्रयुक्त हुए हैं। सांख्य चेतना की शुद्धता को प्रभावित करती है । जैन दर्शन उसे वेदान्त में माया या अविद्या, सांख्य में प्रकृति, न्याय दर्शन में के नाम समिति क) मई है । बो दर्शन में वही कर्म के और वासना के नाम से भी जानी जाती है न्याय दर्शन में वैशेषिक दर्शन में धर्माधर्म भी जैन दर्शन के कर्म के समानार्थक रूप दर्शन में प्रकृति (त्रिगुणात्मक सत्ता ). और योग दर्शन में आशय शब्द भी इसी अर्थ को अभि व्यक्त करते हैं मैं चैत्र दर्शन का पद भी जैन दर्शन के कर्म का समानार्थक है । - यद्यपि उपरोक्त शब्द कर्म के पर्यायवाची कहे जा सकते हैं फिर भी प्रत्येक शब्द अपने गहन विश्लेषण में एक दूसरे अर्थ की अभिव्यंजना भी करता है । फिर भी सभी विचारणाओं में एक समानता है और वह यह कि सभी कर्म संस्कार को आत्मा के बन्धन या दुःख के कारण के रूप में सीकर करते हैं । जैन विचारणा दो प्रकार के कारण मानती हैं - १ - निमित्त कार और रु उक्तदान कारण कर्म सिद्धान्त में कर्म के निमित्त कारण के रूप में कर्म का तथा उपादान कारण के रूप में आत्मा को स्वीकार किया गया है । कर्म मौलिक स्व जैन दर्शन में और मुक्ति की प्रक्रिया की व्याख्या बिना अजीब ( जद) तत्व की विवेचना के सम्भव नहीं ।केका कारण क्या ? जब यह प्रश्न जैन दार्शनिकों के समय उन्होंने बताया कि आत्मा के अन्न का कारण मात्र आत्मा नहीं है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520759
Book TitleSambodhi 1980 Vol 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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